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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


8

भुवन द्वारा गौरा को :

गौरा,
आज छः महीने बाद तुम्हें फिर पत्र लिखने बैठा हूँ। इन छः महीनों में तुम्हारा भी कोई पत्र नहीं आया है। तुम्हारा पत्र क्यों नहीं आया, इसका कारण तो यही है कि मैंने पता नहीं दिया। न देने पर भी तुम पता लगाकर चिट्ठी भेज सकती थी यह मैं जानता हूँ, पर यह भी जानता हूँ कि फिर भी तुम चुप रही तो यह मानकर ही चुप रही होगी कि मैंने वैसा चाहा है - या कि उसमें मेरा हित है। तुम्हारा जो पिछला पत्र मुझे मिला था - कलकत्ते नहीं, सिंगापुर मिला वह - उससे भी यह स्पष्ट होता है। यह सब जानकर भी, मैं अपने को समझा लेना चाहता हूँ कि तुम मुझे भूल गयी क्योंकि, क्यों कोई मेरे हित को लेकर इतना चिन्तित हो, क्यों कोई मेरे अन्याय, मेरे आघात सहे? यह सब स्नेह, करुणा, वात्सल्य-सब मानो एक बोझ-सा मुझे दबाये डालता है...। एक नये बोझ-सा, क्योंकि एक बोझ पहले ही मेरे कन्धों पर है - मानो एक सजीव बोझ, एक सजीव शाप का बोझ, सिन्दबाद के कन्धों पर सवार सागर के बूढ़े-सा, जो विवश न मालूम किधर ले जा रहा है। कई महीनों से जानता हूँ कि मेरा जीवन किसी नयी अज्ञात, अकल्पित दिशा में बहा जा रहा है, और शायद एक ट्रैजेडी की ओर। ठीक क्या है नहीं सोच पाता; और न काम में अपने को सोचने का मौका ही देता हूँ। पर कभी-कभी बहुत वृष्टि में काम बन्द हो जाता है, अपने बाँस और लकड़ी के घर में बन्दी होकर केवल वर्षा की टपाटप सुनता रहता हूँ जैसे आज तीन दिन से सुन रहा हूँ, सब कपड़े, कागज़, खुली हुई कोई भी चीज़ सील जाती है; तब खाली बैठकर सोचने को बाध्य हो जाता हूँ...तब लगता है, इस सागर-यात्रा के साथ जिस जीवन से निकला, उसमें अब लौटना नहीं है, कुछ मेरे भीतर बराबर मरता जा रहा है और कुछ नया उसके स्थान पर भरता जाता है जो स्वयं भी मरा है या जीता है नहीं मालूम... यहाँ काम समाप्त होगा तो शायद लौटना ही होगा, पर मानो लौटने का, लौटकर किसी से भी मिलने का मुझे डर है, जैसे मैं स्वयं अपना प्रेत हो गया हूँ, और डरता हूँ कि लौटकर जब लोगों से मिलूँगा तो पाऊँगा कि मैं तो अब सच नहीं हूँ, केवल प्रेत हूँ - और वैसा पाना मैं नहीं चाहता, नहीं चाहता!

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