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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


और मैं? मेरी चिन्ता मत करो। काल के पास एक अमोघ मरहम है। मैं भी काम कर रही हूँ। दो महीने से स्वयंसेविका नर्स का काम मैंने लिया है, साथ काम सीख भी रही हूँ; पूरा नर्सिंग सीखने में तो अधिक समय लगता पर प्रबन्ध का काम भी मैं करती हूँ; मेरे लिए वह आसान है पर नर्सों में प्रबन्ध-कुशल कम मिलती हैं और इसलिए वह काम मुश्किल समझा जाता है - या उस काम के लिए कार्यकर्ता पाना मुश्किल समझा जाता है। फलतः मेरा काम बराबर बढ़ता जाता है, और सोचने के लिए मुझे कम अवकाश मिलता है...। कुछ सोचती हूँ तो कभी जब बीमार होती हूँ - और बीमार बीच-बीच में हो जाती हूँ - मेरी वाइटैलिटी बहुत कम हो गयी है। और भुवन, श्रीनगर में मैं मरकर भी नहीं मरी, पर तब से अधूरी मृत्यु कई बार हो चुकी है; अब डाक्टर ने कहा है कि एक आपरेशन फिर करना पड़ेगा नहीं तो इस तरह घुलकर मर जाऊँगी। मरने में और नया कुछ होगा यह तो नहीं लगता, पर घुलकर घिसट कर मरना नहीं चाहती...लेकिन आवृत्ति भी नहीं चाहती - नहीं, आवृत्ति तो नहीं हो सकती पर आजकल बड़े जोरों की बारिश होती रहती है यह ज़रा थम ले तो...। वैसे भी बारिश का मौसम अच्छा नहीं होता। डाक्टर का कहना है, अगले महीने या अक्टूबर में आपरेशन हो जाये-और अगर दार्जिलिंग जा सकूँ तो और अच्छा, या कहीं पहाड़ पर। देखें...

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