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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


अगले दिन उसने भुवन को तीन चिट्ठियाँ दी। एक वकील के नाम, एक दूसरे वकील के नाम, एक कलकत्ते के किसी पते पर। देते हुए बोली : “यह कलकत्ते में मेरी एक मौसी हैं - यहाँ से उनके पास जाऊँगी।”

भुवन ने चौंक कर कहा “हूँ? क्यों? कब।”

“हाँ, भुवन। लगता है, अब जीवन फिर सिफ़र से शुरू करना होगा। माता-पिता तो लौट नहीं सकते - पर घर की भावना ही सही।”

थोड़ी देर मौन रहा।

“और तुम भी तो लौटोगे अब।”

“अभी तो मेरी छुट्टियाँ हैं...।”

“तो पाँच-सात दिन तो अभी मैं भी यहाँ हूँ।”

“तब तक तो मौसम बहुत अच्छा हो जाएगा-और कलकत्ता तो इन दिनों”

“बेगर्स कांट बी चूज़र्स,* भुवन! और कलकत्ते नहीं, शहर से तो बाहर नदी पर रहूँगी।” (* भिखारी की पसन्द का सवाल नहीं होता।)

“फिर भी।”

सहसा रेखा ने पूछा, “यहाँ बाढ़ का क्या हाल है?”

“उतर रही है। कीचड़ सूख रहा है।”

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