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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


लेकिन भुवन के आशावाद ने काम नहीं दिया।: दो-तीन दिन बाद ही एक बड़े लिफ़ाफे में वकील की चिट्ठी आयी। हेमेन्द्र धर्म-परिवर्तन की दलील देकर तलाक़ की माँग कर रहा था, वकील ने राय दी थी कि रेखा भी दोस्ताना तौर पर मामला तय हो जाने दे, और अच्छा हो कि अपनी ओर से मामला किसी वकील को सौंप दे, दोनों वकील आपस में बात सुलझा कर ऐसा यत्न करेंगे कि सब काम स्मूथली हो जाये। “मेरे मुवक्किल का कहना है कि आप भी तलाक़ चाहती हैं, और किसी तरह के साहाय्य से आपको कोई दिलचस्पी नहीं है - ऐसी सूरत में यही सबसे अच्छा होगा; यों आपको विशेष कुछ कहना हो तो मैं भरसक आपकी सुविधा प्राप्त करने की कोशिश करूँगा... अपने मुवक्किल के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी तो निबाहूँगा ही, पर तलाक़ के मामले बहुत डेलिकेट होते हैं और उसमें सिर्फ़ पक्ष ले लेना उचित नहीं होता। कानून है, लेकिन जीते-जागते मानव प्राणी से बड़ा नहीं है...एक वकील के मुँह से ऐसी बात सुनकर आप को अचरज होगा; पर मेरे इस ग़ैर-रस्मी एप्रोच को आप गुस्ताख़ी न समझेंगी..।.”

शाम को भुवन ने और फूल, कुछ फल, बिस्कुट और रेखा के माँगे हुए दो-चार कपड़े आदि सब यथा-स्थान रखते हुए कहा, “रेखा, एक चिट्ठी है।”

रेखा बोली, “मैंने तो कहा था - किसकी है, हेमेन्द्र की?”

“नहीं। पर..”

“अच्छा, लाओ दे दो!”

भुवन से लेकर रेखा ने चिट्ठी आद्यन्त पढ़ ली। थोड़ी देर चुप रही, आँखें बन्द कर ली। एक आँसू कोर से ढरक गया। व्यथित स्वर से उसने कहा, “यह चिट्ठी-तो...वह चिट्ठी...” और वाक्य अधूरा छोड़ कर चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद सँभल कर उसने कहा, “मेरी ओर से पहुँच और धन्यवाद लिख दोगे - यह भी कि मैं वकील....” और सहसा रुक गयी। एक काली छाया चेहरे पर आ गयी। “नहीं भुवन-मुझसे गलती हुई-यह ज़िम्मेदारी तुम पर नहीं डालनी चाहिए थी। लाओ मुझे कागज़ दो, अच्छा रहने दो मैं कल लिख रखूँगी, तुम शाम को पोस्ट कर देना।”

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