ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“हाँ। बहुत टाइम लूज़ हुआ। लेकिन-आई थिंक शी विल पुल थ्रू। अभी आपरेट करना होगा। शायद ब्लड ट्रांसफ्यूज़न भी।”
भुवन ने कहना चाहा, “मेरा रक्त अगर ठीक हो तो दे सकता हूँ,” पर न जाने कैसी झिझक ने उसे रोक दिया-ऐसी बातें उपन्यासों में होती हैं-पर डाक्टर ने कहा, “ब्लड प्लाज्मा है अस्पताल में-फॉर्चुनेटली।”
फिर अस्पताल में रुकने तक कोई नहीं बोला। उतरते ही डाक्टर ने कहा, “नर्स टॉमस, आरपरेशन-रूम तैयार कराओ। डाक्टर रेबर्न को ख़बर करो। इम्मीजिएट आपरेशन।”
स्ट्रेचर उतार कर अन्दर ले जाया गया। भुवन को खोया-सा खड़ा देखकर डाक्टर ने कहा, “आप घर जाएँगे या....” फिर सहसा याद करके कि वह कैसे आ रहा था, “आप आ कर वेटिंग-रूम में बैठिए - आइ विल ट्राइ एण्ड सेंड यू सम टी। आइ एम सारी देयर्स नथिंग एल्स आइ कैन।”
भुवन ने कहा, “नौ थैंक यू, डाक्टर, बट आइ'म मोस्ट ग्रेटफूल-फ़र्स्ट थिंग्स फ़र्स्ट।”
डाक्टर ने स्वीकृति-सूचक सिर हिलाया और फुर्ती से भीतर चला गया।
भुवन ने घड़ी देखी। ढाई। उसने कुरसी पर बैठते हुए तक लम्बी साँस ली। अगर उसका बचाया हुआ यह आधा-पौन घंटा...विचार उसने वहीं छोड़ दिया। सहसा कहा, “अब भी, रेखा, अब और ज्यादा-जितना कभी नहीं किया।”
मानो जवाब में रेखा के अन्तिम शब्द उसके मन में गूँज गये, और उसे जान कर अचम्भा हुआ कि कापी का गीत उसे याद है; वह गुनगुनाने लगा :
क्लान्ति आमार क्षमा करो , क्षमा करो प्रभु...
|