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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


एकाएक भुवन को लगा कि रेखा कराही है। भीतर से डाक्टर का स्वर आया, 'विल यू कम ओवर, प्लीज़?”

भुवन उतर कर पीछे गया। पहले कपड़े हटाकर रेखा को अस्पताल के चार कम्बल ओढ़ा दिये गये थे, वह सचेत थी और धीरे-धीरे कुछ कह रही थी। “भुवन...जान...भुवन...” भुवन ने पास झुककर कहा, “मैं हूँ, रेखा, अब कोई चिन्ता नहीं-”

रेखा ने कहा, “कहाँ”

“एम्बुलेंस में-अभी अस्पताल पहुँच जाएँगे-”

उसने आँखें बन्द कर ली, पर कुछ गुनगुनाती रही। भुवन ने और पास झुककर सुना : “क्लान्ति-आमार-क्लान्ति-”

वह समझ गया। रेखा ने उसके जाने से पहले जो कापी उसे दी थी, उसमें कहीं यह गीत लिखा था :

क्लान्ति आमार क्षमा करो हे प्रभु
पथे यदि पिछिये -पिछिये पड़ि कभु।
(- रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

भुवन ने एक बार डाक्टर की ओर देखा, फिर उतर गया। डाक्टर ने कहा, “मैं भी सामने आता हूँ।” पीछे नर्स और सेवक रह गये। इंज़न स्टार्ट हुआ, गाड़ी घूमी और चल पड़ी। डाक्टर ने कहा, “रक्त रोकने के लिए इंजेक्शन दिया है।”

भुवन ने पूछा, “ख़तरा है?”

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