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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“मैं तो जानने से पहले ही उत्सुक था, इतिहास जान कर तो नहीं हुआ-”

“मानते हो न? तभी तो कहता हूँ वह असाधारण स्त्री है। तुम भी मानते हो, नहीं तो पूछते क्यों? तुम्हें किसी स्त्री में दिलचस्पी हो, यह तो कभी देखा-सुना नहीं, कालेज में भी तुम गब्बू प्रसिद्ध थे।” चन्द्र जोर से हँस दिया।

भुवन ने अन्तिम बात को अनसुनी करते हुए कहा, “और क्यों दिलचस्पी है? और यह तो इतिहास वाली बात है, उसका आकर्षण क्या निरी लोलुपता नहीं होती कि अगर पहले से इतिहास है तो एक अध्याय शायद हम भी जोड़ लें, ऐसा कुछ लोभ?”

“हो सकता है। आधुनिक समाज में कोई समझदार विवाहित से नहीं उलझता, यह तो तुम जानते हो-उसमें खतरा बहुत होता है। हाँ, विवाहित मगर वियुक्ता की बात और है-उसमें दोनों ओर के लोभ हैं। और यह जो लाभ की बात-”

“छिः, चन्द्र, क्या बात तुम करते हो! यह आधुनिक समाज की नहीं, अठारहवीं सदी के यूरोप के समाज की मनोवृत्ति है - बल्कि उस समय के भी दरबारी समाज की।”

“अच्छा, अच्छा, गरम मत होओ मेरे दोस्त। और मुझे छिः-छिः कहने से क्या लाभ है-मैं तो हर किसी की बात कह रहा था, अपनी थोड़े ही?”

“क्यों, तुमने अपनी दिलचस्पी की बात नहीं कही थी अभी?”

“कही थी। पर वह बात और है। मैं तो रेखा देवी का बहुत सम्मान करता हूँ। बल्कि वैसी स्त्री...” सहसा चन्द्र बात अधूरी छोड़ कर चुप हो गया।

“कहो, कहो - वैसी स्त्री क्या?”

“कुछ नहीं!” कह कर चन्द्र ने चुप लगा ली, और फिर भुवन के बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बोला।

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