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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“और घर कहाँ है? माता-पिता हैं?”

“नहीं। पिता बड़े नामी डाक्टर थे; माँ भक्त बंगालिन थी और मरी तो बहुत-सी सम्पत्ति रामकृष्ण मिशन को छोड़ गयी। वैसे शायद कश्मीरी है, पर दादा कलकत्ते में आ बसे थे और तब से तीसरी पीढ़ी बंगाली ही अधिक है - रेखा हिन्दी और बांग्ला दोनों बोलती है और बांग्ला संगीत में उसकी अच्छी पहुँच है।”

“अच्छा? और?”

चन्द्रमाधव ने कहा, “और क्या? जो तुम पूछो सो बताऊँ?”

“तुम से परिचय कब से, और कैसे हुआ?”

“मुझ से!” चन्द्र ने तकिये के पास से टटोल कर सिगरेट का पैकेट निकाला, सिगरेट सुलगा कर, उठते हुए बोला, “मुझ से? तुम तो जानते हो, पत्रकार का परिचय हर किसी से होता है। समझ लो वैसे ही।”

“बनो मत! और ये सब बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं?”

“मैं पहले से जानता था। बल्कि सुन रक्खी थीं, इसीलिए कौतूहल अधिक था, जब भेंट हुई तो सोचा, इस अद्भुत स्त्री से अवश्य परिचय करना चाहिए।”

“क्यों? और वह अद्भुत क्यों है?”

“यह मुझ से पूछते हो? देखकर ही नहीं छाप पड़ती कि यह स्त्री कुछ भिन्न है-असाधारण है? और क्यों की भली पूछी। जिस स्त्री का इतिहास होता है, उसमें किसे नहीं दिलचस्पी होती?”

“भुवन ने तनिक रुखाई से कहा, “हाँ जर्नलिस्ट को तो ज़रूर होनी चाहिए”

“जर्नलिस्ट ही क्यों, हर किसी को होती है। तुम्हीं क्यों इतना जानने को उत्सुक हो?”

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