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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


सहसा भुवन ने कहा, “अच्छा, रेखा, अब क्या?”

“अब क्या, भुवन?” रेखा ने सहज भाव से कहा, “जीवन अपनी गति से चलता है। उससे बहुत अधिक तो मैं पहले भी नहीं माँगती थी।”

अगर रेखा बात को ऐसे टाल दे तो वह कैसे पूछे? उसने फिर यत्न किया, “रेखा, तुम अब भी - अब भी क्या?”

“हाँ, भुवन, मैं अब भी वैसी फुलफ़िल्ड हूँ - और तुम्हारी कृतज्ञ।”

“वह नहीं रेखा - तुम-तुम क्या नौकरी ही - तुम यहाँ से मेरे साथ चलो”

बिजली चमकी - पहले दूर से प्रतिबिम्बित, फिर कड़कती हुई; कड़क के धीमी पड़ते-न-पड़ते वर्षा होने लगी। उसकी पटपटाहट के ऊपर स्वर उठाते हुए भुवन ने कहा, “रेखा, यह क्या सम्भव होगा कि - तुम मुझसे विवाह कर लो?”

रेखा सिहर गयी, उठने को हुई और बैठी रही। बोली नहीं।

वर्षा की पटपटाहट बढ़ती गयी, हवा के साथ जोर की बौछार आयी और खिड़कियाँ खटखटाने लगीं, भुवन ने उठकर खिड़की बन्द कर दी, बाहर का शब्द सहसा कम हो गया, मानो सन्नाटा छा गया हो।

उस भ्रमात्मक सन्नाटे को तोड़ते हुए रेखा ने स्पष्ट स्वर में कहा, “नहीं भुवन; नहीं।”

फिर एक लम्बा मौन रहा। फिर भुवन बोला, “मुझे यही डर था, रेखा। बात भी बहुत जटिल हो गयी है। पर इतना तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि यह करुणा नहीं है, रेखा; न निरी एक नोबल जेसचर - मैं सचमुच कहता हूँ।” उसके स्वर में व्यथा थी।

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