ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
वह तो सचमुच वही करता। कुछ जब तोड़ना ही है, तो सीधे स्मैश करना चाहिए। यह क्या कि तोड़ना भी चाहो, और ढेला मारते भी डरो, गिराओ भी तो धीरे-धीरे कि चोट न आये? तोड़ना है, दो हथोड़ा-स्मैश! वकील ने कहा है कि रेखा को पत्र वही लिखेगा, और हेमेन्द्र से वायदा लिया है कि वह स्वयं कोई पत्र-व्यवहार नहीं करेगा, पर क्यों न वह रेखा को एक पत्र लिखे, साफ-साफ पता लगाते क्या देर लगेगी - लिख दे कि वकील ने ऐसा कहा है पर वह सोचता है कि सीधी साफ़ बात - पूछ ले कि क्या तुम सफ़ाई देने आओगी? वकील ने कहा था, क्रूरता होगी। सभी पुरुष-स्त्री क्रूर होते हैं - और सबसे क्रूर वे जो एक-दूसरे से शादी कर लेते हैं।
क्या जाने, रेखा भी शादी करना चाहे; पर यह विचार आते ही हेमेन्द्र ठिठक-सा गया-रेखा और शादी! एक विकृत मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गयी। एक शादी का ही अनुभव उसके लिए काफ़ी होगा...प्यार? लेकिन रेखा के लिए पुरुष - मात्र ऐसा जहरीला जीव हो गया होगा - औरतों की बनावट ही ऐसी होती है, कि पुरुष से चोट खाकर वे सारी पुरुष जाति को बुरा समझ लेती हैं - उदार दृष्टि से तो सोच ही नहीं सकतीं, कि मर्द-मर्द में भेद भी हो सकता है, कि....।
यहाँ आकर उसकी विचार-परम्परा टूट गयी। क्यों नहीं वह रेखा पर तरस खा सकता, करुणा कर सकता, क्यों नहीं उसे अपनी दया दे सकता? रेखा-उसके प्रेम-शरीर का एक मरा हुआ अवयव जिसे उसने काट दिया है - काट देने के बाद अवयव पर आक्रोश कैसा?
ख़ैर, वह रेखा को एक चिट्ठी तो लिखेगा ही, देखा जाएगा - करुणा करने के लिए सारा भविष्य पड़ा है!
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