ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कौशल्या बढ़कर उसके जूते खोलने लगी। मोजे गीले थे, आसानी से न उतरे, उस ने कहा, “ठीक से बैठ जाइये तो उतार लूँ।” चन्द्र ने बैठ कर पैर उठाये तो उसने उकडूँ बैठ कर पैर गोदी में लिया और मोज़ा उतार कर पंजे हाथों से मल दिये। जूते-मोजे॓ एक ओर रखकर वह तौलिया लेकर आयी; चन्द्र को निश्चल देखकर उसने तौलिया अपने कन्धे पर डाला और चन्द्र की टाई खोल डाली। क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रह कर मानो साहस बटोर कर उसने पैंट की पेटी का बकसुआ खोल दिया, फिर कमीज़ खींच कर बाहर निकाल दी। फिर बोली, “अच्छा लीजिए, अब जल्दी बदल डालिए।” और जाने को मुड़ी।
चन्द्र उसे स्थिर दृष्टि से देख रहा था। कौशल्या थोड़ी-सी सिमट गयी। चन्द्र ने कहा, “तुम जा कहाँ रही हो?” वह कहने को हुई, “आप कपड़े...” पर बीच में ही रुक गयी, बोली, “आप की डाक ले आऊँ।”
चन्द्र तनिक-सा मुस्कराया, फिर कपड़े बदलने लगा। धोती की तहमद लपेट ली, बदन रगड़ कर सूखी कमीज़ पहन ली; फिर खाट पर बैठ गया। कौशल्या ने आकर कहा, “यह लीजिए।”
दो चिट्ठियाँ थीं। एक पर टाइप किया पता था - उसे सवेरे भी देखा जा सकता है। दूसरी-पर यह क्या? उस पर चन्द्र की ही लिखावट थी। सात-आठ दिन पहले उसने दिल्ली रेखा को पत्र लिखा था वही लौटकर आया था। 'एड्रेसी लेफ्ट'...तो रेखा वहाँ नहीं है, और डाक आगे भेजने के लिए पता भी नहीं छोड़ गयी है, न उसे सूचना दे गयी है...क्षण-भर वह सूना-सा ताकता रहा।
कौशल्या ने पूछा, “किस की चिट्ठी है?”
चन्द्र अनजाने ही कहने को था, “मेरी” पर रुक गया; स्वर में लापरवाही लाता हुआ बोला, “ऊँह, यों ही।” दोनों पत्रों को उसने तकिये के नीचे ठेल दिया; आँखें कौशल्या पर जमायी और पूछा, “तुम नहीं खाओगी?”
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