ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
मानो दूर, अलग हटाया हुआ, भुवन सोचने लगा। एक अद्भुत भाव उसके मन में उठा। अभी पीछे देखने, सोचने, परखने का सामर्थ्य उसमें नहीं था, इतना ही उसके मन में उठा कि यह उसके जीवन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सन्धि-स्थल है...क्या वह भी रेखा की तरह कह सकता है कि, कि अब वह फुलफिल्ड है, कि अब वह मर सकता है? पर फुलफ़िल होना क्या है? एक तन्मयता उसने जानी है, एक अभूतपूर्व तन्मयता; लेकिन स्वयं वह जो जान पाया है उससे कुछ अधिक और कुछ अधिक गहरा रेखा उसके निमित्त से जान सकी है - अधिक गहरा क्योंकि वह स्त्री है, और स्त्री होते हुए भी उसने वह साहस किया है जो शायद भुवन में भी नहीं है; अधिक गहरा इसलिए कि उसे जानने के लिए पहले जाना कितना कुछ भुलाना भी पड़ा है...तो क्या यही फुलफ़िल्मेन्ट नहीं है कि कोई किसी को वह चरम अनुभूति दे सके - देने का निमित्त बन सके - जो जीवन की निरर्थकता को सहसा सार्थक बना देती है? सचमुच, ऐसे सन्धिस्थल पर ही मरना चाहिए, यह कहते हुए कि मैं कुछ दे सका जो मुझ से बड़ा है, मुझ से अच्छा है...अगर वह यहीं से नीचे कूद पड़े - रेखा गाना समाप्त करके मुड़ कर देखे कि वह नहीं है, गुम हो गया है, तो....।
लेकिन रेखा ने सहसा गाना बन्द कर दिया। पुकारा “भुवन! भुवन!”
“हाँ।”
“यहाँ आओ।”
भुवन पास सरक आया।
“मेरा हाथ पकड़ो।”
“भुवन ने पकड़ लिया।
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