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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


आधा मील आगे जाकर भुवन ने देखा; एक पेड़ का तना नदी के आर-पार पड़ा है। स्पष्ट ही वह पुल का काम देने के लिए डाला गया है, पैदल इस पर आ-जा सकते हैं। भुवन ने पूछा, “इससे पार चलें-सकोगी?”

“अब सब-कुछ सकूँगी, भुवन!” रेखा बोली। भुवन ठीक समझ नहीं सका कि इस का अभिप्राय क्या है : आगे बढ़कर तेज पैरों से तने पर चल चली। मँझधार में जाकर रुकी, नीचे पानी की ओर देखा, और फिर बैठ गयी। भुवन भी कुछ दूर आगे बढ़ कर बैठ गया।

रेखा गाने लगी। उसका गला भर्रा रहा था, स्वर मानो अब टूटा, पर वह चेहरे पर एक मुस्कान लिए गाये जा रही थी, किसी बात का उसे होश नही था, यहाँ तक कि भुवन को लगा, उसकी उपस्थिति की खबर भी रेखा को नहीं है :

तोमा सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे
देवे कि गो वासा आमाय देवे कि एकटिधारे :
तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे।

आमि शुनबो ध्वनि काने आमि भरबो ध्वनि प्राणे
आमि शुनबो ध्वनि
सेइ ध्वनि ते चित्त वीणाय तार बाँधिबो बारे-बारे।

देबे कि गो वासा आमाय देबे कि ...
तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे।

देबे कि गो वासा आमाय देबे कि ...

(तुम्हारे स्वर की धारा झरती है जहाँ, वहीं एक किनारे क्या मुझे स्थान दोगे? मैं कान से ध्वनि सुनूँगी, प्राणों में ध्वनि भर लूँगी; उसी ध्वनि से चित्त-वीणा के तार बार-बार बाँधूँगी। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

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