ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“हाँ, बत्ती बुझा दो, पर पल्ला आधा खोल दो कि चाँदनी दीखती रहे।”
भुवन ने एक ओर का पल्ला ऊँचा करके ऐसे बाँध दिया कि ऊपर से खुला रहे, उससे चाँदनी का एक वृत्त रेखा के पास फ़र्श पर पड़ने लगा।
“अभी थोड़ी देर में यह बढ़कर तुम्हारे ऊपर आ जाएगा, न?” रेखा ने कहा।
“अँ-हाँ।”
भुवन लेट गया और उस खुली जगह में से बाहर आकाश देखने लगा। बहुत देर तक वह मुग्ध भाव से देखता रहा, कुछ बोला नहीं। न रेखा कुछ बोली।
सहसा उसे ध्यान आया कि चाँदनी का वह वृत्त उसके ऊपर आ गया है। तब यह देखने को कि रेखा जग रही है या नहीं, उसने उधर देखा।
रेखा ज्यों-की-त्यों बैठी थी, चाँदनी के प्रतिबिम्बित प्रकाश में उसे देखती हुई।
भुवन ने हड़बड़ा कर कहा, “रेखा, ठिठुर जाओगी।”
रेखा ने जैसे सुना नहीं।
भुवन ने उठकर उसके कन्धे पकड़े - ठण्डे, जैसे बर्फ। बलात् उसे लिटा दिया, कम्बल उढ़ा दिये। धीरे-धीरे उसके चेहरे पर हाथ फेरने लगा; चेहरा भी बिल्कुल ठण्डा था। उसने खाट के पास घुटने टेककर नीचे बैठते हुए रेखा के माथे पर अपना गर्म गाल रखा, उसका हाथ धीरे-धीरे रेखा के कन्धे सहलाने लगा। भुवन ने कम्बल खींचकर कन्धे ढँक दिये। कम्बल के भीतर उसका हाथ रेखा का वक्ष सहलाने लगा।
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