ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
थोड़ी देर बाद भुवन बिना कुछ कहे उठ कर बाहर चला गया। जाते हुए तम्बू का पल्ला गिरा गया। रेखा ने इसका अभिप्राय समझ लिया, उसने कपड़े बदल लिए, भीतर जाकर मुँह-हाथ धोया, फिर शाल लपेट ली और पल्ला उठा कर बाहर चली आयी। भुवन कुछ दूर पर टहल रहा था, वहीं चली गयी।
थोड़ी देर साथ टहलता रहकर भुवन तम्बू की ओर लौट गया।
रेखा कुछ और आगे बढ़ गयी। एक चट्टान पर बैठ गयी। थोड़ी देर बाद उसने एक-एक काँटा निकाल कर जूड़ा खोला, बाल खोल डाले, फिर सिर को एक बार झटककर उन्हें कन्धों पर फैला लिया। फिर उसने चाँद की ओर मुँह उठाकर आँखें बन्द कर लीं, उसका सारा शरीर शिथिल हो आया।
ऐसा ही भुवन ने उसे लगभग घण्टे-भर बाद पाया। वह कपड़े बदल कर फिर लौटा नहीं था, यह सोच कर कि रेखा उसी के कारण बाहर रुकी है तो थोड़ी देर में स्वयं आ जाएगी, पर जब वह बहुत देर तक न आयी तब वह देखने निकला। पहले एक बार यों ही चारों ओर नज़र दौड़ायी, पर कहीं गति का कोई लक्षण नहीं देखा, सर्वत्र निश्चलता; तब वह आगे बढ़ा।
जब उसकी आँखों ने सहसा रेखा का आकार पहचाना, तो वह वहीं ठिठक गया। रेखा ठीक वैसे बैठी थी जैसे लखनऊ में उसने देखा था, शिथिल, शान्त, दूर।
और वह वैसा ही ठिठका रहता, अगर यह न देखता कि रेखा की शाल उसके कन्धों से गिर गयी है, और उसे होश नहीं है। कन्धों पर का सफ़ेद रेशम चाँदनी में ऐसा चमक रहा है, जैसे छोटे-छोटे पंख।
उसने शाल उठाते हुए कहा, “पगली, चाँदनी है, सब पी न सकोगी। चलो, जमी जा रही हो ठण्ड से - ऐसे तो तुम्हीं चाँदनी हो जाओगी।”
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