ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चार बजे उस डिब्बे में भी दो-चार व्यक्ति आ गये। रेखा ने कहा, “फिर थोड़ा टहला जाये?”
“चलिए।”
दोनों फिर प्लेटफ़ार्म पर टहलने लगे। लेकिन भीड़ होने लगी थी। भुवन ने कहा, “आपको एक बार अपने सामान की फ़िक्र करनी चाहिए।”
जनाने डिब्बे में भीड़ भर गयी थी। रेखा ने अपना सामान देख-देखकर, अपना अधिकार स्थापित कर देने के लिए सीट पर थोड़ी जगह करायी और वहाँ पर बैठ गयी। भुवन बाहर खिड़की पर खड़ा हो गया!
भीतर बड़ी किटकिट थी। बात करना असम्भव था। रेखा ने अपना पर्स खोलकर उसमें से छोटी-सी कापी निकाली और पेंसिल से उसमें कुछ लिखने लगी।
भुवन ने पूछा, “क्या लिख रही हैं?”
रेखा ने हँस कर सिर हिला दिया।
थोड़ी देर बाद उसने कापी भुवन की ओर बढ़ायी। उसमें लिखा था, “उस डिब्बे में बैठकर थोड़ी देर के लिए मैं अपने को यह मना सकी थी कि हम साथ ही इस गाड़ी में यात्रा कर रहे हैं। पर अब-अब लगता है कि आप मुझे विदा कर चुके और उपचार बाकी है।”
भुवन ने कुछ न कह कर कापी लौटा दी।
रेखा ने फिर लिखा : “अगले स्टेशन पर आप प्रतापगढ़ से आगे बात चलाने आवेंगे?”
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