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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


प्लेटफ़ार्मों पर भटकते, कभी बेंच पर बैठते, कभी छती हुई पटरी से आगे बढ़कर बजरी पर चलकर तारे और कभी पुल पर खड़े-खड़े सिगनलों की लाल बत्तियाँ देखते, इंजिनों का स्वर सुनते और उनके धुएँ की गुँजलकों को आँखों से सुलझाते हुए दोनों ने चार घंटे तक क्या बातें की, इसका सिलसिलेवार ब्यौरा देना कठिन है। सिलसिला उसमें अधिक था भी नहीं, भले ही उस समय उन दोनों को यही दीखा हो कि प्रत्येक बात एक से एक अनिवार्यतः निकलती और सुसंगत गति से चलती गयी है। साढ़े बारह के लगभग भुवन जाकर नया टिकट ले आया और अपने लिए नया प्लेटफ़ार्म। तीन बजे जब गाड़ी आ लगी, तब वह कुली ढूँढ़ कर लाया, रेखा से बोला, “अब तो वेटिंग-रूम में जाएँगी या अब भी मैं ही सामान उठवा कर लाऊँगा?” फिर दोनों गाड़ी पर चले गये।

जनाने डिब्बे में पहिले ही से कई सवारियाँ थी - बच्चे-कच्चे लिए औरतें। सामान उसमें एक तरफ़ रखवा रेखा बाहर निकल आयी; बोली, “चलिए कहीं और बैठें - फिर यहाँ आ जाऊँगी।”

साधारण इण्टरों में एक खाली था। दोनों उसमें जा बैठे, बातें फिर होने लगी। भुवन ने कश्मीर के अपने प्लान बताये - कब जाएगा, कहाँ रहेगा, क्या करेगा - तुलियन झील पर कैसे दिन काटेगा, वग़ैरह। रेखा ने पूछा, “वहाँ बालू होगी?”

“बालू? क्यों?”

रेखा हँस दी। “घरौंदे बनाने के लिए-”

भुवन भी हँस दिया। फिर उसने पूछा, “नैनीताल में क्या करेंगी आप दिन-भर?”

“झील की ओर ताका करूँगी। कागज़ की नावें चलाया करूँगी - नहीं, कागज़ की भी नहीं, सपनों की। काल्पनिक यात्राएँ करूँगी। आपको क्या मालूम है, मध्य-वर्ग की बेकार औरत कितनी लम्बी लड़ी गूँथ सकती है सपनों की!”

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