लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने साभिप्राय कहा, “प्राइवेट फेसेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़” रेखा बैठ गयी। भुवन ने कहा, “सचमुच?”

“और नहीं तो खदेड़े जाने की कड़वाहट मिटाने के लिए।”

भुवन ने बैठते हुए कहा, “इसे ठीक ही कहते हैं 'सड़क का द्वीप' - दोनों ओर बहते जन-प्रवाह में निश्चलता का एक द्वीप।”

“हैं न? मेरे साथ कुछ ही दिन में आप सर्वत्र द्वीप देखने लगेंगे - हमीं द्वीप हैं, मानवता के सागर में व्यक्तित्व के छोटे-छोटे द्वीप; और प्रत्येक क्षण एक द्वीप है - खासकर व्यक्ति और व्यक्ति के सम्पर्क का, कांटैक्ट का प्रत्येक क्षण - अपरिचय के महासागर में एक छोटा किन्तु कितना मूल्यवान द्वीप!” रेखा ने आँखें भुवन की ओर उठायीं; भुवन से उसकी आँखें मिली तो उनमें कुछ प्रबल, कुछ तेजस्वी और संकल्प भरा था जिसने भुवन की दृष्टि को कई क्षण तक बाँधे रखा। फिर उसने आँखें झुका लीं, और उसका हाथ उसी परिचित मुद्रा में उसकी कनपटी की ओर उठ गया।

न जाने क्यों भुवन के मन में विचार उठा, “हाँ; मैं तुम्हें पहचानता हूँ, रेखा; लेकिन-तुम मुझसे क्या चाहती हो?' पर तत्क्षण ही विलीन हो गया, इतनी जल्दी कि वह उसे ठीक से पकड़ भी न पाया।

“चलें?” रेखा ने कहा, और साथ ही उठ खड़ी हुई। उसके बाद कोई कुछ नहीं बोला; रेखा जब वाई. डब्ल्यू. के फाटक पर पहुँची और अन्दर प्रविष्ट हो गयी तभी उसने कहा, “नमस्कार, भुवन जी।” और उसने जल्दी से कहा, “नमस्कार!”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book