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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चौकीदार ने कहा, “सो तो ठीक है बाबू जी, मगर....” उसके स्वर में कुछ नरमाई भी थी, कुछ दूरी भी, मानो कह रहा हो, “हाँ, आप सदाशय हैं, माना; पर बच्चे हैं, घर जाइये।”

फाटक के बाहर लैम्प के खम्भे के नीचे आकर दोनों ठिठक गये। सहसा एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्करा दिये। रेखा ने कहा, “प्लोमर की एक कविता है जिसमें पार्क में घूमने वाले दो जन खदेड़े जाते हैं - आपने पढ़ी हैं?”

“नहीं-मैंने प्लोमर का सिर्फ़ नाम पढ़ा है-”

“मुझे याद नहीं है, लेकिन उसमें सिपाही कहता है : “आउटलाज़ हू आउटरेज बाईलॉज़ आर द डेविल*!' और कविता का अन्त है : 'एण्ड दस वी कीप आवर सिटीज़ क्लीन!**” (* जो अवैध लोग उपनियमों की मर्यादा तोड़ते हैं बड़े दुष्ट हैं।) (**और इस प्रकार हम अपने शहरों को स्वच्छ रखते हैं। )

“हूँ।”

दोनों कश्मीरी दरवाज़े की ओर बढ़ रहे थे। दरवाज़ा वास्तव में दो दरवाज़े हैं, एक आने का मार्ग है, एक जाने का, दोनों सड़कों के बीच में घास की एक लम्बी पटरी है, रास्ते के मोड़ के साथ मुड़ती चली गयी है।

भुवन ने हँस कर कहा, “यहीं बैठना चाहिए। यहाँ से तो कोई नहीं उठाएगा।”

रेखा ने कहा, “अजब बात है कि शहर में अगर कोई प्राइवेट स्थान है तो पब्लिक सड़क के बीचोंबीच।”

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