ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
(यह पत्र चन्द्रमाधव के पत्र के साथ भुवन को मिला तो उसके हाशिये पर जगह-जगह चन्द्र के नोट थे। 'ज्योति-किरण' वाली बात के बराबर लिखा था : “मेरी बधाई स्वीकार करो, दोस्त!” 'विधि के हस्तक्षेप' वाली के बराबर लिखा था : “अब निस्तार नहीं है-विधि ने जो दिशा दे दी वह तो पकड़नी ही होगी!” अन्त में लिखा था : “न, तुम उत्तर सीधे ही देना-तुम्हारी गति उसी दिशा में है।”)
भुवन द्वारा रेखा को :
प्रिय रेखा जी,
आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ, यद्यपि उसके साथ ही अपनी अकिंचनता का बोध बड़े ज़ोर से हो आया। आप अगर कर्मवादी हैं तो धन्यवाद देने का प्रश्न यों भी नहीं उठना चाहिए; फिर मैं तो किसी तरह अधिकारी नहीं हूँ। बल्कि मुझ से कूप-मण्डूक को जब-तब कोई बाहर का प्रकाश दिखा दे, तो मुझे कृतज्ञ होना चाहिए - भले ही उस प्रकाश से चौंध भी लगे!
पहाड़ की बात चन्द्र ने भी लिखी है। निमन्त्रण के लिए मैं आप दोनों का आभारी हूँ। और जा सकता तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती; पर अभी कुछ ठीक नहीं कह सकता। इसकी बहुत काफ़ी सम्भावना है कि ग्रीष्मावकाश में मुझे एक वैज्ञानिक मण्डल के साथ, या उसकी ओर से कहीं जाना पड़े। बहुत सम्भव है कि पहाड़ ही जाना पड़े, क्योंकि कॉस्मिक रश्मियों के सम्बन्ध का काम है और उसके लिए मापक यन्त्रों को पहाड़ी ऊँचाइयों पर या जल की गहराई में ले जाना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो सम्भव है, कुछ दिन के लिए मैं कहीं पहाड़ पर आप लोगों को मिल जाऊँ। नहीं तो फिर किसी सुअवसर की प्रतीक्षा करनी होगी। पर कुल्लू कदाचित् न हो सके-उधर जोज़ी-ला पर एक दूसरा दल जाएगा यह निश्चित है। मैं या तो भूमध्य रेखा की ओर लंका में कहीं जाऊँगा या किसी निर्जन पहाड़ी झील पर-शायद कश्मीर में। कुछ निश्चय होते ही सूचित करूँगा।
आशा है आप प्रसन्न हैं।
भुवन
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