ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
इस बार लखनऊ का प्रवास सुखद रहा। इसके लिए तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। सचमुच, चन्द्र, मेरे लिए तुम जो कुछ करते रहे हो, जब सोचती हूँ तो गड़ जाती हूँ - कितने अपात्र को तुमने अपनी करुणा दी है। यों मैं तुम से बड़ी हूँ, पर... लेकिन जो नहीं कह सकूँगी, उसे कहने का यत्न नहीं करूँगी। पर मैं सच तुम्हारी ऋणी हूँ।
आशा है तुम प्रसन्न हो, और यथावत् काफ़ी हाउस जाते हो। दो-एक प्याले काफ़ी के मेरी ओर से भी पी लेना-पर काफ़ी अधिक मत पिया करो!
रेखा
इसके साथ का पत्र, रेखा द्वारा भुवन के नाम :
प्रिय भुवन जी,
यह पत्र लिख तो रही हूँ चन्द्र के आग्रह से, पर इससे आपको एक बार फिर सच्चे मन से धन्यवाद देने का जो अवसर मिला है उसका अभिनन्दन करती हूँ। आपका परिचय मेरे इधर के धुँधले वर्षों में एक प्रखर ज्योति-किरण-सा है; मैं तो किसी हद तक कर्मवादी हूँ और सोचती हूँ कि मेरा इस बार का लखनऊ जाना और आपसे भेंट होना और आप के साथ प्रतापगढ़ तक लौटना 'लिखा हुआ' था। यों तो मानव-जीवन एक अकारण, अनिर्दिष्ट, आकारहीन गतिमयता-सा लगता है; पर मेरा ख़याल है, बीच-बीच में विधि मानवों के जीवन में थोड़ा-सा हस्तक्षेप ज़रूर करती है - एक-एक गोट को उठा कर एक-एक दिशा दे देती है... इस सबको वैज्ञानिक थ्योरी मान कर इसका खण्डन-मण्डन न करें-मैं अपनी भावना की बात कहती हूँ।
चन्द्र का पहाड़ चलने का आग्रह है। मैंने अभी कुछ निश्चय नहीं किया; मेरी कठिनाइयाँ तो आप देखेंगे ही। चन्द्र का विचार था कि आप भी चलें, क्या ऐसा हो सकेगा? बल्कि आप भी चलें, और अपने परिचित और किसी को भी साथ लें-पुरुष, स्त्री, परिवार, जो आप चाहें और जिनका साथ आप को प्रीतिकर रहे। 'चलें' तो मैं कह गयी, पर अपने जाने का निश्चय तभी करूँगी जब आप का पक्का पता आ जाये।
मेरा पता ऊपर दिया है। आप उत्तर चाहें मुझे दें, चाहे चन्द्रमाधव को ही सीधे दे दें।
रेखा
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