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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


परमार्थमय जीवन बिताने पर, अपने कार्यों को दूसरे के लिए लाभदायक बना देने पर अपना जीवन बिलकुल निरापद एवं प्रफुल्लित हो जाता है। त्याग भावना को, प्रेम व्यवहार को प्रमुख नीति बना लेने पर किसी से संघर्ष होने का अवसर उपस्थित नहीं होता और न शाप एवं घृणा के शब्दबेधी बाण आत्मा को हर घड़ी घायल करते हैं वरन् दूसरों के आशीर्वाद शुभ संकल्प, सद्भाव देवताओं की भांति पुष्प वृष्टि करते हैं। अदृश्य लोक से अपने ऊपर अमृत दृष्टि होती हुई, हमारा अन्तःकरण अनुभव करता है जिसके कारण मानसलोक उल्लास और आनन्द से भरपूर बना रहता हे। उत्तम स्वभाव वाला परमार्थी मनुष्य अपने दैवी प्रभाव से आस-पास के लोगों पर वैसा ही प्रभाव डालता है, जिससे एक उत्तम समाज का निर्माण होने लगता है। पड़ोसियों के साथ हम प्रेम, भलमनसाहत, न्याय और ईमानदारी का व्यवहार करते हैं तो वह भी उसका अनुकरण करने के लिए बहुत अंशों में प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार मनुष्य अपने और दूसरे के जीवन को, परमार्थ नीति के अपना लेने पर सुख-शान्ति पूर्ण बना लेते हैं।

इस लेख के आरम्भ में ही यह कहा गया है कि किसी कर्म को बुरा या भला बतलाना ठीक नहीं क्योंकि कर्म तो एक पदार्थ है - जैसे लोहा। लोहे से शास्त्र रचना करने वाली लेखनी भी बन सकती है और हत्या करने वाली छुरी भी बन सकती है। वस्तु एक है पर प्रयोग भेद से वह दो भिन्न प्रकार की हो गई।

पाप-पुण्य भी ऐसे ही किसी एक कार्य के दो प्रयोग भेद हैं। व्यासजी ने परोपकार को पुण्य और स्वार्थ को पाप बता कर एक बहुत ही उत्तम सम्मति प्रकट की है। अपने लिए अपेक्षाकृत अधिक चाहना पाप है और दूसरों की सुविधा का अधिक थान रखना पुण्य है। स्वार्थी को पापी और परमार्थी को पुण्यात्मा कहा जा सकता है, क्योंकि स्वार्थ से स्वयं मानसिक अशान्ति प्राप्त होती है एवं दूसरों को कष्ट होने के कारण विरोधी वातावरण उत्पन्न होता है, परमार्थ से आत्मिक शान्ति उपलब्ध होती है, दूसरे लोग सुख पाते हैं, समाज में शान्ति रहती है और सद्भावों का सुखदायी वातावरण उत्पन्न होता है। कर्मयोग के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों के अनुसार कोई व्यक्ति साधारण काम-काज करता हुआ भी संन्यासी और तपस्वियों की गति प्राप्त कर सकता है। शिक्षा, मजदूरी, व्यापार या अन्य कोई भी काम करता हुआ मनुष्य यदि अपने विचारों को परमार्थी रखे तो उसका वही दैनिक कार्य धर्म हो जायगा। एक दुकानदार अपनी दुकान को परमार्थी भावना से चलाता है। अपनी मजदूरी, मुनाफा नियत कर लेता है। फिर ठीक भाव से, पूरा तोलकर, बेचता है। अनजान को कम और जानकार को अधिक नहीं देता। अपने कार्य को समाज सेवा, धर्म समझता है इसलिए वह खराब, मिलावटी, दूषित, हानिकर वस्तुऐं नहीं बेचता, यदि कोई दुकानदार इस तरीके से अपनी दुकानदारी चलाता है तो निस्सन्देह वह पूर्ण धर्मात्मा है।

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