आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
अफ्रीका की कुछ असभ्य जातियों में अब तक ऐसी रिवाज मौजूद है कि यदि किसी पुरुष की स्त्री की मृत्यु हो जाय तो उस पुरुष को भी स्त्री के साथ जला दिया जाता है। फिलीपाइन द्वीपों की एक जाति में ऐसा रिवाज था कि विधुर पुरुष को कोई छूता नहीं, वह जीवन भर मुँह पर कपड़ा ढाँके रहता है जिससे कोई उस पापी का मुँह न देखे। तिब्बत में मृत पत्नी के पति को फिर कोई स्त्री नहीं छूती, यहाँ तक कि माता और पुत्री भी उसे स्पर्श तक नहीं करती। दूसरी स्त्री का उसके साथ विवाह होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ठीक इसी प्रकार की प्रथा भारतवर्ष की सवर्ण कही जाने वाली जातियों में प्रचलित है जिसके अनुसार विधवा स्त्रियों को उसी दशा में रहना होता है जैसा कि अफ्रीका, तिब्बत और फिलीपाइन की कुछ असभ्य जातियों में पुरुषों को रहना पड़ता था। योग शास्त्र ऐसी रीति-रिवाजों को वर्तमान समय से बहुत पीछे की समझता है। स्त्री-पुरुष वास्तव में दो स्वतंत्र सत्तायें हैं। एक-दूसरे को आगे बढ़ाने के कार्य में सहायता दें, ईश्वर ने इस उद्देश्य से दो भिन्न लिंग पैदा किए हैं। वे एक स्वतंत्र सहयोगी हैं। एक के न रहने से दूसरे का उन्नति क्रम रुद्ध कर दिया जाय, यह कोई मुनासिब बात नहीं है। संयम, ब्रह्मचर्य बड़ी सुन्दर वस्तुऐं हैं कोई व्यक्ति बाल-ब्रह्मचारी रहे तो भी ठीक है, विधवा या विधुर होने पर काम-वासना को त्याग सके तो भी अच्छा है, परन्तु यह ऐच्छिक प्रश्न है। बलपूर्वक कराया गया संयम असल में कोई संयम नहीं है। इस प्रकार लोक व्यवहार के दैनिक कार्यों में धर्म शास्त्र बहुत उदार हैं। वह मनुष्य जाति की एकता, अखण्डता, व्यापकता, समानता को स्वीकार करता है भाई से भाई को जुदा करने की, मनुष्य को मनुष्य से अलग हटाने की रूढ़ियों के संकुचित दायरे में बाँधने की, उन्नति के मार्ग में बाधा डालने की और आत्मिक स्वतंत्रता में प्रतिबन्ध लगाने की धर्म कदापि इच्छा नहीं करता। आप धर्म को ग्रहण करिए और अधर्म के अज्ञान को कूड़े की तरह झाडू से बुहार कर घर से बाहर फेंक दीजिए।
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