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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


रीति-रिवाजों का आधार मानवीय सुविधा है, इसलिए उन्हें धर्म के साथ सम्बन्धित नहीं किया जा सकता। धर्म के तात्विक सिद्धान्त सार्वभौम होते हैं, वे सम्पूर्ण मनुष्यों पर एक समान लागू होते हैं। किन्तु जो जाति भेद स्थान भेद आदि के कारण बदल जाते हों, वे 'धर्म’ नहीं कहे जा सकते। हिन्दू सन्ध्या करता है, मुसलमान नमाज पढ़ता है, ईसाई प्रेयर करता है। इनके तरीके या कर्मकाण्ड अलग-अलग हैं। क्या आप इन तरीकों को ही धर्म कहेंगे? तब तो अपने मजहब वालों के सिवाय अन्य सारी दुनिया अधार्मिक ही कही जायगी। आप हिन्दू हैं और सन्ध्या करते हुए विश्वास करते हैं कि इस प्रकार अन्तरात्मा की वाणी ईश्वर तक पहुँचाते हैं। ठीक इसी प्रकार एक सच्चे मुसलमान को भी यह मानने का अधिकार है कि वह नमाज द्वारा खुदा तक अपनी पुकार पहुँचाता है। दोनों ही सच्चे हैं। यदि रीति-रिवाजों की प्रधानता होती तो दोनों में से एक धार्मिक होता दूसरा अधार्मिक, किन्तु बात ऐसी नहीं है। रीति-रिवाजों का कोई मूल्य नहीं, केवल भावना का महत्व है मान लीजिए आप हिन्दू हैं। आपमें सनातनी, आर्य समाजी आदि मतभेद आते रहते हैं और सोचते हैं कि इनमें से किसे स्वीकार करना चाहिए, किसे नहीं? इस प्रश्न का निर्णय करने के लिए बाहरी विवादों से कुछ अधिक सहायता न मिलेगी क्योंकि दोनों ही पक्ष वाले अपने-अपने मत का समर्थन प्रौढ़ शब्दावली एवं प्रखर तर्कों द्वारा करते हैं। इस शब्दावली और तर्क समुदाय में हर व्यक्ति उलझ सकता है और अपने को भ्रमित कर सकता है। भ्रम से बचने का एक ही सर्वोत्तम उपाय है कि शान्त चित्त से भ्रम के ऊपर विचार करें। विचार में स्वार्थपरता, लोक-लज्जा, हठ-धर्मी इन तीनों ही वस्तुओं को बिलकुल अलग कर दें और विशाल दृष्टिकोण, उदार स्वयं निष्पक्ष निर्णय को अपनाते हुए सोचें कि वर्तमान समय की परिस्थितियों में कौन प्रथायें हितकर और कौन अहितकर हैं। पिछली भूमि पर से कदम उठाकर आगे की जमीन पर पांब रखना यह यात्रा का निर्बाध नियम है। आप अब तक असंख्य मील लम्बी यात्रा पार कर चुके हैं और इस बीच में कल्पनातीत लम्बाई की भूमियों में गुजरते हुए उन्हें पीछे छोड़ चुके हैं, फिर जिन परिस्थितियों में पड़े हुए हैं उन्हें छोड़ने की झिझक क्यों? अपने को किन्हीं संकुचित रस्सियों में मत बांधिए क्योंकि आप स्वतंत्र थे और अब स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए विजय यात्रा कर रहे हैं। 'सत्य की शोध' यही जीवन का कार्य होना चाहिए। रूढ़िवाद यदि आपको सड़ी-गली रस्सियों में जकड़े रहे और विकास क्रम को रोककर अधिकाधिक स्वतंत्र विचारधारा अपनाने से वंचित कर दे तो समझिए कि आपने गलत चीज अपना ली। धर्म के नाम पर उसकी सड़ी-गली पीप को आपने बटोर लिया। यह पीप किसी समय में पुष्ट माँस रहा था यह समझकर उसे चुल्लू में भरे फिरना योग-शास्त्र की दृष्टि में बिल्कुल मूर्खतापूर्ण है।

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