आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
आप गम्भीरतापूर्वक धर्म तत्व पर दृष्टिपात कीजिए और धर्म की उन नियम व्यवस्थाओं में कौन-सी पवित्र और शाश्वत भावना काम कर रही है, उसे ढूँढ निकालिए। सत्य शाश्वत है और कायदे, कानून, विचार, व्यवस्था परिवर्तनशील हैं। इस ध्रुव सत्य का हृदयंगम करते ही धर्मों का आपसी विरोध, बैमनस्य दूर हो जाता है और धर्म सत्य हैं और एक ही नींव पर रखे हुए हैं, यह दृष्टिगोचर होने लगता है।
आप जिस संप्रदाय से निकट सम्पर्क रखते हैं, उसका सूक्ष्म दृष्टि से, निष्पक्ष परीक्षक की भांति, खरे आलोचक की भांति निरीक्षण कीजिए। निस्सन्देह उसमें बहुत-सी बात बहुत ही उत्तम होगी क्योंकि हर सम्प्रदाय सत्य का सहारा लेकर खड़ा हुआ है, उसमें कुछ अच्छाई अवश्य ही होनी चाहिए। किन्तु यह भी निश्चय है कि समय की प्रगति के साथ उसमें कुछ न कुछ निरुपयोगिता भी अवश्य आई होगी। यदि उस निरुपयोगिता को भी मोहवश छाती से चिपटाये फिरेंगे तो आप अपना बहुत बड़ा अहित करेंगे। दो दिन पूर्व जो भोजन तैयार किया था वह बहुत ही पवित्र, उत्तम, स्वास्थकारक था, पर दो दिन पुराना हो जाने के कारण आज वह बासी हो गया उसमें बदबू आने लगी, स्वाद रहित एवं हानिकर हो गया। उस बासी भोजन को मोहवश यदि ग्रहण करेंगे तो अपने को रोगी बना लेंगे। साम्प्रदायिक अनुपयोगी रीति-रिवाजों की परीक्षा कीजिए और उनका वैसे ही परित्याग कर दीजिए जैसे मरे हुए कुत्ते की लाश को घर से विदा कर देते हैं। पिछला कल बीत गया। अपनी बहुत-सी आवश्यकता-अनाबश्यकताओं को बह अपने साथ समेटकर ले गया। आज तो आज की समस्याओं पर विचार करना है। आज के लिए उपयोगी नई व्यवस्था का निर्माण करना है। एक समय में एक रिवाज उत्तम थी, केवल इसीलिए वह सदा उत्तम रहेगी, यह कोई तर्क नहीं है। हो सकता है कि एक समय नरमेध यज्ञ होते हों, परन्तु आज उनकी पुनरावृत्ति कौन करेगा? आदिम युग में मनुष्य के पूर्वज दिगम्बर रहते थे, पर आज तो सभी को कपड़ों की आवश्यकता होती है। पहिले लोहे और पत्थर से आग पैदा की जाती थी इसीलिए कोई दियासलाई का बहिष्कार नहीं कर देता। अमुक नगर से अमुक नगर को पहिले पक्की सड़क नहीं थी, पर आज बन गई है तो उस पर चलना पाप थोड़े ही कहा जायगा।
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