आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
संसार के अनेक धर्मों के आदेशों को सामने रखें, उनके सिद्धान्त और आदेशो पर दृष्टिपात करें तो वे बहुत बातों में एक-दूसरे से विपरीत जाते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें विरोधाभास भी दिखाई देता है परन्तु वास्तव में भ्रम में पड़ने की कोई बात नहीं है। अन्धों ने एक बार एक हाथी को छूकर देखा और वे उसका वर्णन करने लगे। जिसने पैर छुआ था उसने हाथी को खम्भा जैसा, जिसने पूँछ छुई थी उसने बाँस जैसा, जिसने कान छुआ था उसने पंखे जैसा, जिसने पेट छुआ था उसने चबूतरे जैसा बताया। वास्तव में वे सभी सत्य वक्ता हैं क्योंकि अपने ज्ञान के अनुसार सभी ठीक कह रहे हैं। उनका कहना उनकी परिस्थिति के अनुसार ठीक है। परन्तु उसे पूरा नहीं माना जा सकता है। देश, काल और पात्र की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए अवतारी आत्माओं ने विभिन्न समयों पर विभिन्न धर्मों का उपदेश दिया है। भगवान महावीर को एक माँस भोजी निषाद मिला। उन्होंने उसे माँस भोजन त्याग देने के लिए बहुत समझाया पर कुछ भी असर नहीं हुआ। तब उन्होंने सोचा कि इसकी मनोभूमि इतनी निर्मल नहीं है जो अपने चिरकाल के संस्कारों को एकदम त्याग दे इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे उसे बढ़ने का उपदेश देना उचित समझा सोच-विचार के बाद भगवान महावीर ने उस निषाद से कहा अच्छा भाई! कौवे का माँस खाना तो छोड़ दोगे, यह भी बड़ा धर्म है। निषाद इसके लिए तैयार हो गया क्योंकि कौवे का माँस खाने का उसे अवसर ही नहीं आता था। जब त्याग का संकल्प कर लिया तो उसके मन में धर्म की भावना जागृत हुई और धीरे-धीरे अन्य त्यागों को अपनाता हुआ कुछ दिन बाद बड़ा भारी धर्मात्मा, अहिंसा का पुजारी और महावीर का प्रधान शिष्य बन गया। अवतारी महापुरुष जिस जमाने में हुए हैं उन्होंने उस समय की परिस्थितियों का, देश, काल, पात्र का बहुत ध्यान रखा है। अरब में जिस समय हजरत मुहम्मद साहब हुए थे उस समय वहाँ के निवासी अनेक स्त्रियाँ रखते थे, उन्हें चाहे जब रखते और चाहे जब निकाल देते थे, जब सन्तान बढ़ती और उनका पालन-पोषण न कर पाते थे तो निर्दयतापूर्वक बच्चों को मार-मार कर फेंक देते, उपयोगी और अनुपयोगी पशुओं की अन्धाधुन्ध हत्या करते थे। उन्हें धीरे-धीरे सुधारने के लिए हजरत ने चार स्त्रियाँ रखने की, बालकों को न मारने की, जीव हत्या एक नियत संख्या में करने की शिक्षा दी। समय बीत जाने पर अब एक व्यक्ति को चार स्त्रियाँ रखने की आवश्यकता नहीं रही, देखने में वह शिक्षा आवश्यक हो गई, पर इसके मूल में छिपा हुआ सत्य ज्यों का त्यों आवश्यक है- 'अपनी आवश्यकताओं को घटाओ, भोगों को कम करो।' प्रेम का यह संदेश उस शिक्षा के मूल में था वह उद्देश्य करोड़ों वर्षों में भी परिवर्तित न होगा।
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