ई-पुस्तकें >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जब दीवान साहब और बीरसेन राजा साहब के सामने पहुंचे तो दोनों ने प्रणाम किया। राजा साहब ने उन्हें अपने सामने चटाई पर बैठने की आज्ञा दी और प्रसन्नता के साथ बातचीत करने लगे–
राजा–कहो तुम लोग अच्छे तो हो?
दोनों–(हाथ जोड़ के) महाराज के आशीर्वाद से सब कुशल है।
राजा–कुसुम कुमारी और उसकी प्रजा प्रसन्न है?
दोनों–रानी कुसुम कुमारी महाराज का आगमन सुनकर बहुत प्रसन्न हैं और उनकी प्रजा भी दिन-रात महाराज का मंगल मनाया करती है।
बीरसेन–महाराज ने अपने आने की कोई सूचना नहीं दी थी इसलिए हम लोग इससे पहले सेवा में उपस्थित न हो सके।
राजा–यह तो हमारा घर है, घर में आने की सूचना कैसी? जब आवश्यकता हुई आ गए और जब समय आया चले गए।
दीवान–हम लोगों को इस बात की बड़ी लज्जा है कि आपका अमूल्य रत्न रनबीरसिंह हमारे यहां से खो गया, और हम लोग महाराज के आगे मुंह दिखाने योग्य नहीं रहे, यद्यपि अभी तक खोज ही रही है परन्तु पता नहीं लगा।
राजा–उसके लिए खेद करने की आवश्यकता नहीं, मुझे खबर मिल चुकी है कि वह प्रारब्ध और उद्योग का आनन्द लेने लगा है और अब शीध्र ही हम लोगों से मिलने वाला है।
बीरसेन–(उत्कंठा से) कब तक उनके दर्शन होंगे?
राजा–जहां तक मैं समझता हूं आज कल के बीच ही में हम लोग यकायक उसी कमरे में अन्दर देखेंगे जिसमें उसके तथा कुसुम कुमारी के सम्बन्ध की तसवीरें लिखी हुई हैं, और इसलिए मैं यहां आया भी हूँ। (कुछ सोचकर) ईश्वर की माया बड़ी प्रबल है, इसी दो दिन में कई छिपे हुए भेद भी खुलने वाले हैं और बिहार तथा तेजगढ़ दोनों राजधानियों की कायापलट होने वाली है, प्रारब्ध और उद्योग दोनों एक से एक बढ़ के हैं इसमें कोई सन्देह नहीं।
बीरसेन और दीवान साहब ने आश्चर्य के साथ राजा साहब की बातें सुनीं। उद्योग तथा प्रारब्ध के खटके ने उनके दिल में भी जगह पकड़ ली वे दोनों सिर नीचा करके सोचने लगे कि इस विषय में राजा साहब से और कुछ पूछना उचित होगा या नहीं?
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