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कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

पाठकों को आश्चर्य होगा कि नारायणदत्त राजा होने पर भी साधुओं की तरह क्यों रहते हैं? और ऐसी अवस्था में राजकाज कैसे देखते होंगे? इसके जवाब में यदि हम राजा साहब का असल हाल न कहें तो भी इतना कहना आवश्यक है कि राजा नारायणदत्त जब बिहार की गद्दी पर बैठे थे तब से साल भर तक तो उसी ढंग और टीमटाम के साथ रहे जिस तरह राजा लोग रहते हैं मगर उसके बाद उन्होंने अपना ढंग और रहन-सहन तथा खान-पान आदि बिल्कुल बदल दिया, सादा अन्न अपने हाथ से बनाकर खाना, सादा कपड़ा पहनना, जमीन पर सोना और दरबार का समय छोड़ दिन-रात ग्रन्थ देखने और ईश्वराधन में बिताना उनका काम था। वे शरीर सुख या मनोविलास के लिए काम न करते और प्रजा के हित साधन का ध्यान बहुत रखते थे और प्रजा भी उन्हें ईश्वर के तुल्य समझती थी। सतोगुण स्वभाव और आचरण रहने पर भी जब वे दरबार में बैठते थे तो दुष्टों को दण्ड की आज्ञा दिये बिना न रहते थे। उनकी पत्नी न थी और न कोई भाई-बन्द था हां रनबीरसिंह को लड़के से बढ़कर मानते और बड़ा स्नेह रखते थे। इस बात का ध्यान तो बहुत ही रखते थे कि राज्य की आमदनी राज्य और प्रजा ही के हित में लगे।

राजा नारायणदत्त में केवल इतनी ही बात न थी बल्कि एक दो बातें और भी थी। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि–‘‘हमारे ऐसा राजा औरों के लिए चाहे सुखदाई क्यों न हो परन्तु व्यापारियों के लिए दुःखदाई होता है। उससे व्यापार की कच्ची दीवार को धक्का लगता है, और ऐसा होने से देश में व्यापार की उन्नति नहीं होती।’’ इसलिए वे इनाम बहुत बांटते थे और इनाम में नकद रुपए न देकर अच्छे-अच्छे गहने, जेवर, कपडे, बर्तन इत्यादि बांटा करते थे, और इसी सबब से उनके मुसाहब नौकर कारगुजार और अन्य लोग भी उन्हें खुश करने की चेष्ठा करते थे और प्रजा को किसी बात की कमी नहीं रहती थी और न किसी तरह का कष्ट होता था।

राजा नारायणदत्त का हाल जो हम ऊपर लिख आए हैं दीवान को बीरसेन कुसुम कुमारी और उसकी रिआया को अच्छी तरह मालूम था, क्योंकि राजा साहब दूर रहने पर भी कुसुम कुमारी के हालचाल की खबर रखते थे और आवश्यकता पड़ने पर कुसुम कुमारी भी उनसे मदद और राय लिया करती थी।

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