ई-पुस्तकें >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–(सिर हिलाकर) नहीं-नहीं, मैं मकान के अन्दर तब तक न जाऊंगा जब तक मुझको यह न मालूम हो जाएगा कि मैं यहां क्योंकर आ पहुंचा। कल संध्या के समय मैं एक चश्मे के किनारे पर था रात को सतगुरु का ध्यान करने लगा। सतगुरु ने दर्शन दिया और कहा कि यहां क्यों घूम रहा है। कुछ काम कर अपने शिष्यों के पास जा और उन लोगों को नित्य-क्रिया का उपदेश दे क्योंकि वे लोग अपनी नित्य-क्रिया को बहुत दिनों तक छोड़ देने के कारण भूल गए हैं, और इससे उनके ऊपर एक भारी आफत आने वाली है। (कुछ सोचकर) न मालूम क्या बात थी कि मुझे यकायक नींद आ गई और आंख खुली तो अपने को यहां पाता हूं। अहा! तू ही तो है!! अब तो सबके पहले गुरु की आज्ञा का पालन करूंगा और अपने शिष्यों से मिलकर उन्हें उपदेश करूंगा, मैं तुम्हारे साथ उस मकान में नहीं जा सकता, (खड़े होकर) पहले मैं उन चेलों को खोजूंगा और उन्हें उपदेश करूंगा।
नौजवान–(पैरों पर गिरकर) बस-बस, अब मुझे निश्चय हो गया कि सतगुरु ने आपको हमारे ही लिए यहां भेजा है, हमीं लोग उपदेश पाने योग्य हैं और नित्य क्रिया भूले हुए हैं।
रनबीर–(झुककर) अहा, तू ही तो है। मगर मैं तुम्हारी बातें नहीं मान सकता, यहां से चले जाओ, आधी घड़ी के लिए मुझे छोड़ दो, हम सतगुरु से पूछ लें।
इतना कहकर रनबीरसिंह चट्टान पर बैठ गए और सिद्धासन होकर ध्यान करने लगे। नौजवान थोड़ी देर तक पास खड़ा रहा, इसके बाद जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ मकान के अन्दर चला गया और थोड़ी ही देर में उन्नीस-बीस आदमियों को साथ लिए रनबीरसिंह के पास आ पहुंचा। रनबीरसिंह अभी तक ध्यान में बैठे हुए थे इसलिए वे लोग उन्हें चारों तरफ से घेर चुपचाप अदब से बैठ गए। उन लोगों की पोशाक बेशकीमती और सिपाहियाना ठाठ की थी और वे लोग नौजवान और देखने में हाथ-पैर से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे।
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