लोगों की राय

उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

371 पाठक हैं

कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


विजय और भी गरम होकर आक्रमण करते हुए बोला, 'और उन ढकोसलों में क्या तथ्य है?' उसका संकेत मंदिरों के शिखरों की ओर था।

'हमारे धर्म मुख्यतः एकेश्वरवादी हैं। विजय बाबू! वह ज्ञान-प्रधान है; परन्तु अद्वैतवाद की दार्शनिक युक्तियों को स्वीकार करते हुए कोई भी वर्णमाला का विरोधी बन जाए, ऐसा तो कारण नहीं दिखाई पड़ता। मूर्तिपूजा इत्यादि उसी रूप में है। पाठशाला मे सबके लिए एक कक्षा होती, इसलिए अधिकारी-भेद है। हम लोग सर्वव्यापी भगवान् की सत्ता को नदियों के जल में, वृक्षों में, पत्थरों में, सर्वत्र स्वीकार करने की परीक्षा देते हैं।'

'परन्तु हृदय में नहीं मानते, चाहे अन्यत्र सब जगह मान लें।' तर्क न करके विजय ने व्यंग्य किया।

मंगल ने हताश होकर किशोरी की ओर देखा।

'तुम्हारा ऋषिकुल कैसा चल रहा है?' मंगल किशोरी ने पूछा।

'दरिद्र हिन्दुओं के ही लड़के मुझे मिलते हैं। मैं उनके साथ नित्य भीख माँगता हूँ। जो अन्न-वस्त्र मिलता है। उसी में सबका निर्वाह होता है। मैं स्वयं उन्हे संस्कृत पढ़ाता हूँ। एक ग्रहस्थ ने अपना उजड़ा हुआ उपवन दे दिया है। उसमें एक ओर लम्बी सी दालान है और पाँच-सात वृक्ष हैं; उतने में सब काम चल जाता है। शीत और वर्षा में कुछ कष्ट होता है, क्योकि दरिद्र हैं तो क्या, हैं तो लड़के ही न!'

'कितने लड़के हैं?' मंगल निरंजन ने पूछा।

'आठ लड़के हैं, आठ बरस से लेकर सोलह बरस तक के।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book