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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'आर्यसमाज कुछ खण्डनात्मक है और मैं प्राचीन धर्म की सीमा के भीतर ही सुधार का पक्षपाती हूँ।'

'यह क्यों नहीं कहते कि तुम समाज के स्पष्ट आदर्श का अनुकरण करने में असमर्थ थे, परीक्षा में ठहर न सके थे। उस विधिमूलक व्यावहारिक धर्म को तुम्हारे समझ-बूझकर चलने वाले सर्वतोभद्र हृदय ने स्वीकार किया, और तुम स्वयं प्राचीन निषेधात्मक धर्म के प्रचारक बन गये। कुछ बातों के न करने से ही यह प्राचीन धर्म सम्पादित हो जाता है - छुओ मत, खाओ मत, ब्याहो मत, इत्यादि-इत्यादि। कुछ भी दायित्व लेना नहीं चाहते और बात-बात में शास्त्र तुम्हारे प्रमाणस्वरूप हैं। बुद्धिवाद का कोई उपाय नहीं।' कहते-कहते विजय हँस पड़ा।

मंगल की सौम्य आकृति तन गयी। वह संयत और मधुर भाषा में कहने लगा, 'विजय बाबू, यह और कुछ नहीं केवल उच्छृंखलता है। आत्मशासन का अभाव - चरित्र की दुर्बलता विद्रोह कराती है। धर्म मानवीय स्वभाव पर शासन करता है, न कर सके तो मनुष्य और पशु में भेद क्या रह जाय? आपका मत यह है कि समाज की आवश्यकता देखकर धर्म की व्यवस्था बनाई जाए, नहीं तो हम उसे न मानेंगे। पर समाज तो प्रवृत्तिमूलक है। वह अधिक से अधिक आध्यात्मिक बनाकर, तप और त्याग के द्वारा शुद्ध करके उच्च आदर्श तक पहुँचाया जा सकता है। इन्द्रियपराय पशु के दृष्टिकोण से मनुष्य की सब सुविधाओं के विचार नहीं किये जा सकते, क्योंकि फिर तो पशु और मनुष्य में साधन-भेद रह जाता है। बातें वे ही हैं मनुष्य की असुविधाओं का, अनन्त साधनों के रहते, अन्त नहीं, वह उच्छृंखल होना ही चाहता है।'

निरंजन को उसकी युक्तियाँ परिमार्जित और भाषा प्रांजल देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई, उसका पक्ष लेते हुए उसने कहा, 'ठीक कहते हो मंगलदेव!'

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