उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
और दो-तीन दासियाँ थीं। यमुना ने उन्हें हटने का संकेत किया। उन सबने समझा-कोई महात्मा आशीर्वाद देने आया है, वे हट गयीं। विजय किशोरी के पैरों के पास बैठ गया। यमुना ने उसके कानों में कहा, 'भैया आये हैं।'
किशोरी ने आँखें खोल दीं। विजय ने पैरों पर सिर रख दिया। किशोरी के अंग सब हिलते न थे। वह कुछ बोलना चाहती थी; पर आँखों से आँसू बहने लगे। विजय ने अपने मलिन हाथों से उन्हें पोंछा। एक बार किशोरी ने उसे देखा, आँखों ने अधिक बल देकर देखा; पर वे आँखें खुली रह गयीं। विजय फिर पैरों पर सिर रखकर उठ खड़ा हुआ। उसने मन-ही-मन कहा-मेरे इस दुःखमय शरीर को जन्म देने वाली दुखिया जननी! तुमसे उऋण नहीं हो सकता!
वह जब बाहर जा रहा था, यमुना रो पड़ी, सब दौड़ आये।
इस घटना को बहुत दिन बीत गये। विजय वहीं पड़ा रहता था। यमुना नित्य उसे रोटी दे जाती, वह निर्विकार भाव से उसे ग्रहण करता।
एक दिन प्रभात में जब उषा की लाली गंगा के वक्ष पर खिलने लगी थी, विजय ने आँखें खोलीं। धीरे से अपने पास से एक पत्र निकालकर वह पढ़ने लगा-'वह विजय के समान ही उच्छृंखल है।... अपने दोनों पर तुम हँसोगी। किन्तु वे चाहे मेरे न हों, तब भी मुझे ऐसी शंका हो रही है कि तारा (तुम्हारी यमुना) की माता रामा से मेरा अवैध सम्बन्ध अपने को अलग नहीं रख सकता।'
पढ़ते-पढ़ते विजय की आँखों में आँसू आ गये। उसने पत्र फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब भी न मिटा, उज्ज्वल अक्षरों से सूर्य की किरणों में आकाश-पट पर वह भयानक सत्य चमकने लगा।
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