उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
विजय के हाथ से रोटी गिर पड़ी। उसने कहा, 'तुमने आज मेरे साथ बड़ा अन्याय किया बहन!'
'क्षमा करो भाई! तुम्हारी माँ मरण-सेज पर है, तुम उन्हें एक बार देखोगे?'
विजय चुप था। उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। उसने कहा, 'माँ मरण-सेज पर! देखूँगा यमुना परन्तु तुमने...!'
'मैं दुर्बल हूँ भाई! नारी-हृदय दुर्बल है, मैं अपने को रोक न सकी। मुझे नौकरी दूसरी जगह मिल सकती थी; पर तुम न जानते होगे कि श्रीचन्द्र का दत्तक पुत्र मोहन का मेरी कोख से जन्म हुआ है।'
'क्या?'
'हाँ भाई! तुम्हारी बहन यमुना का रक्त है, उसकी कथा फिर सुनाऊँगी।'
'बहन! तुमने मुझे बचा लिया। अब मैं मोहन की रोटी सुख से खा सकूँगा।
पर माँ मरण-सेज पर... तो मैं चलूँ, कोई घुसने न दे तब!'
'नहीं भाई! इस समय श्रीचन्द्र बहुत-सा दान-कर्म करा रहे हैं, हम तुम भी तो भिखमंगे ठहरे-चलो न!'
टीन के पात्र में जल पीकर विजय उठ खड़ा हुआ। दोनों चले। कितनी ही गलियाँ पार कर विजय और यमुना श्रीचन्द्र के घर पहुँचे। खुले दालान में किशोरी लिटाई गयी थी। दान के सामान बिखरे थे। श्रीचन्द्र मोहन को लेकर दूसरे कमरों में जाते हुए बोले, 'यमुना! देखो, इसे भी कुछ दिला दो। मेरा चित्त घबरा रहा है, मोहन को लेकर इधर हूँ; बुला लेना।'
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