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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'भगवान् की विभूतियों को समाज ने बाँट लिया है, परन्तु जब मैं स्वार्थियों को भगवान् पर भी अपना अधिकार जमाये देखता हूँ, तब मुझे हँसी आती है। और भी हँसी आती है-जब उस अधिकार की घोषणा करके दूसरों को वे छोटा, नीच और पतित ठहराते हैं। बहू-परिचारिणी जाबाला के पुत्र सत्यकाम को कुलपति ने ब्राह्मण स्वीकार किया था; किन्तु उत्पत्ति पतन और दुर्बलताओं के व्यग्ंय से मैं घबराता नहीं। जो दोषपूर्ण आँखों में पतित है, जो निसर्ग-दुर्बल है, उन्हें अवलम्ब देना भारत-संघ का उद्देश्य है। इसलिए इन स्त्रियों को भारत-संघ पुनः लौटाते हुए बड़ा सन्तोष होता है। इन लतिका देवी ने उनकी पूर्णता की शिक्षा के साथ वे इस योग्य बनायी जायेंगी कि घरों में, पर्दों में दीवारों के भीतर नारी-जाति के सुख, स्वास्थ्य और संयत स्वतन्त्रता की घोषणा करें, उन्हें सहायता पहुँचाएँ, जीवन के अनुभवों से अवगत करें। उनके उन्नति, सहानुभूति, क्रियात्मक प्रेरणा का प्रकाश फैलाएँ। हमारा देश इस सन्देश से-नवयुग के सन्देश से-स्वास्थ्य लाभ करे। इन आर्य ललनाओं का उत्साह सफल हो, यही भगवान् से प्रार्थना है। अब आप मंगलदेव का व्याख्यान सुनेंगे, वे नारीजाति के सम्मान पर कुछ कहेंगे।'

मंगलदेव ने कहना आरम्भ किया-

'संसार मैं जितनी हलचल है, आन्दोलन हैं, वे सब मानवता की पुकार हैं। जननी अपने झगड़ालू कुटुम्ब में मेल कराने के लिए बुला रही है। उसके लिए हमें प्रस्तुत होना है। हम अलग न खड़े रहेंगे। यह समारोह उसी का समारम्भ है। इसलिए हमारे आन्दोलन व्यच्छेदक न हों।

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