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कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9701
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आईएसबीएन :9781613014301 |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'भारतवर्ष आज वर्णों और जातियों के बन्धन में जकड़कर कष्ट पा रहा है और दूसरों को कष्ट दे रहा है। यद्यपि अन्य देशों में भी इस प्रकार के समूह बन गये हैं; परन्तु यहाँ इसका भीषण रूप है। यह महत्त्व का संस्कार अधिक दिनों तक प्रभुत्व भोगकर खोखला हो गया है। दूसरों की उन्नति से उसे डाह होने लगा है। समाज अपना महत्त्व धारण करने की क्षमता तो खो चुका है, परन्तु व्यक्तियों का उन्नति का दल बनकर सामूहिक रूप से विरोध करने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी छूँछी महत्ता पर इतराता हुआ दूसरे का नीचा-अपने से छोटा-समझता है, जिससे सामाजिक विषमता का विषमय प्रभाव फैल रहा है।
'अत्यन्त प्राचीनकाल में भी इस वर्ण-विद्वेष-ब्रह्म-क्षत्रं-संघर्ष का साक्षी रामायण है- 'उस वर्ण-भेद के भयानक संघर्ष का यह इतिहास जानकर भी नित्य उसका पाठ करके भी भला हमारा देश कुछ समझता है नहीं, यह देश समझेगा भी नहीं। सज्जनो! वर्ण-भेद, सामाजिक जीवन का क्रियात्मक विभाग है। यह जनता के कल्याण के लिए बना; परन्तु द्वेष की सृष्टि में, दम्भ का मिथ्या गर्व उत्पन्न करने में वह अधिक सहायक हुआ है। जिस कल्याण-बुद्धि से इसका आरम्भ हुआ, वह न रहा, गुण कर्मानुसार वर्णों की स्थिति में नष्ट होकर आभिजात्य के अभिमान में परिणत हो गयी, उसके व्यक्तिगत परीक्षात्मक निर्वाचन के लिए, वर्णों के शुद्ध वर्गीकरण के लिए वर्तमान जातिवाद को मिटाना होगा-बल, विद्या और विभव की ऐसी सम्पत्ति किस हाड़-मांस के पुतले के भीतर ज्वालामुखी सी धधक उठेगी, कोई नहीं जानता। इसलिए वे व्यर्थ के विवाद हटाकर, उस दिव्य संस्कृति-आर्य मानव संस्कृति-की सेवा में लगना चाहिए। भगवान का स्मरण करके नारीजाति पर अत्याचार करने से विरत हो शबरी के सदृश अछूत न समझो। सर्वभूतहितरत होकार भगवान् के लिए सर्वस्व समर्पण करो, निर्भय रहो।
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