उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
बाथम किंकर्तव्यविमूढ़-सा चर्च के ताँगे पर जा बैठा।
पर नन्दो का तो पैर ही आगे नहीं पड़ता था। वह एक बार घण्टी को देखती, फिर सड़क को। घण्टी के पैर उसी पृथ्वी में गड़े जा रहे थे। दुःख के दोनों के आँसू छलक आये थे। दूर खड़ा मंगल भी यह सब देख रहा था, वह फिर पास आया, बोला, 'आप लोग अब यहाँ क्यों खड़ी हैं?'
नन्दो रो पड़ी, बोली, 'बाबूजी, बहुत दिन पर मेरी बेटी मिली भी, तो बेधरम होकर! हाय अब मैं क्या करूँ?'
मंगल के मस्तिष्क में सारी बातें दौड़ गयीं, वह तुरंत बोल उठा, 'आप लोग गोस्वामीजी के आश्रम में चलिए, वहाँ सब प्रबन्ध हो जायेगा, सड़क पर खड़ी रहने से फिर भीड़ लग जायेगी। आइये, मेरे पीछे-पीछे चली आइये।' मंगल ने आज्ञापूर्ण स्वर में ये शब्द कहे। दोनों उसके पीछे-पीछे आँसू पोंछती हुई चलीं।
मंगल को गम्भीर दृष्टि से देखते हुए गोस्वामी जी ने पूछा, 'तुम क्या चाहते हो?'
'गुरुदेव! आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ; सेवा-धर्म की जो दीक्षा आपने मुझे दी है, उसकी प्रकाश्य रूप से व्यवहृत करने की मेरी इच्छा है। देखिये, धर्म के नाम पर हिन्दू स्त्रियों, शूद्रों, अछूतों - नहीं, वही प्राचीन शब्दों में कहे जाने वाली पापयोनियों - की क्या दुर्दशा हो रही है! क्या इन्हीं के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने परागति पाने की व्यवस्था नहीं दी है क्या वे सब उनकी दया से वंचित ही रहें।
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