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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


दो-चार मनुष्य और इकट्ठे हो गये। बाथम ने कहा, 'माँ जी, यह मेरी विवाहिता स्त्री है, यह ईसाई है, आप नहीं जानतीं।'

नन्दो तो घबरा गयी और लोगों के भी कान सुगबुगाये; पर सहसा फिर मंगल बाथम के सामने डट गया। उसने घण्टी से पूछा, 'क्या तुम ईसाई-धर्म ग्रहण कर चुकी हो?'

'मैं धर्म-कर्म कुछ नहीं जानती। मेरा कोई आश्रय न था, तो इन्होंने मुझे कई दिन खाने को दिया था।'

'ठीक है; पर तुमने इसके साथ ब्याह किया था?'

'नहीं, यह मुझे दो-एक दिन गिरजाघर में ले गये थे, ब्याह-व्याह मैं नहीं जानती।'

'मिस्टर बाथम, वह क्या कहती है क्या आप लोगों का ब्याह चर्च में नियमानुसार हो चुका है-आप प्रमाण दे सकते हैं?'

'नहीं, जिस दिन होने वाला था, उसी दिन तो यह भागी। हाँ, यह बपतिस्मा अवश्य ले चुकी है।'

'मैं नहीं जानती।'

'अच्छा मिस्टर बाथम! अब आप एक भद्र पुरुष होने के कारण इस तरह एक स्त्री को अपमानित न कर सकेंगे। इसके लिए आप पश्चात्ताप तो करेंगे ही, चाहे वह प्रकट न हो। छोड़िए, राह छोड़िए, जाओ देवी!'

मंगल के यह कहने पर भीड़ हट गयी। बाथम भी चला। अभी वह अपनी धुन में थोड़ी ही दूर गया था कि चर्च का बुड्ढा चपरासी मिला। बाथम चौंक पड़ा। चपरासी ने कहा, 'बड़े साहब की चलाचली है; चर्च को सँभालने के लिए आपको बुलाया है।'

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