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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


गाला जो यह दृश्य देखकर बहुत उत्साहित हो रही थी, बोली, 'बाबा! तुम कहते तो मैं ही लड़कियों को पढ़ाती।' बदन ने आश्चर्य से गाला की ओर देखा; पर वह कहती ही रही, 'जंगल में तो मेरा मन भी नहीं लगता। मैं बहुत विचार कर चुकी हूँ, मेरा उस खारी नदी के पहाड़ी अंचल से जीवन भर निभने का नहीं।'

'तो क्या तू मुझे छोड़कर...' कहते-कहते बदन का हृदय भर उठा, आँखें डबडबा आयीं 'और भी ऐसी वस्तुएँ हैं, जिन्हें मैं इस जीवन में छोड़ नहीं सकता। मैं समझता हूँ, उनसे छुड़ा लेने की तेरी भीतरी इच्छा है, क्यों?'

गाला ने कहा, 'अच्छा तो घर चलकर इस पर फिर विचार किया जाएगा।' मंगल के सामने इस विवाद को बन्द कर देने के लिए अधीर थी।

रूठने के स्वर में बदन ने कहा, 'तेरी ऐसी इच्छा है तो घर ही न चल।' यह बात कुछ कड़ी और अचानक बदन के मुँह से निकल पड़ी।

मंगल जल के लिए इसी बीच से चला गया था, तो भी गाला बहुत घायल हो गयी। हथेलियों पर मुँह धरे हुए वह टपाटप आँसू गिराने लगी; पर न जाने क्यों, उस गूजर का मन अधिक कठिन हो गया था। सान्त्वना का एक शब्द भी न निकला। वह तब तक चुप रहा, जब तक मंगल ने आकर कुछ मिठाई और जल सामने नहीं रखा। मिठाई देखते ही बदन बोल उठा, 'मुझे यह नहीं चाहिए।' वह जल का लोटा उठाकर चुल्लू से पानी पी गया और उठ खड़ा हुआ, मंगल की ओर देखता हुआ बोला, 'कई मील जाना है, बूढ़ा आदमी हूँ तो चलता हूँ।' सीढ़ियाँ उतरने लगा। गाला से उसने चलने के लिए नहीं कहा। वह बैठी रही। क्षोभ से भरी हुई तड़प रही थी, पर ज्यों ही उसने देखा कि बदन टेकरी से उतर चुका, अब भी वह लौटकर नहीं देख रहा है, तब वह आँसू बहाती उठ खड़ी हुई। मंगल ने कहा, 'गाला, तुम इस समय बाबा के साथ जाओ, मैं आकर उन्हें समझा दूँगा। इसके लिए झगड़ना कोई अच्छी बात नहीं।'

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