लोगों की राय

उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

371 पाठक हैं

कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


गाला ने अल्हड़पन से कहा, 'अच्छा!'

मंगल ने मोल ठीक किया। धोती लेकर गाला के सरल मुख पर एक बार कुतूहल की प्रसन्नता छा गयी। तीनों बात करते-करते उस छोटे से बाजार से बाहर आ गये। धूप कड़ी हो चली थी। मंगल ने कहा, 'मेरी कुटी पर ही विश्राम कीजिये न! धूप कम होने पर चले जाइयेगा। गाला ने कहा, 'हाँ बाबा, हम लोग पाठशाला भी देख लेंगे।' बदन ने सिर हिला दिया। मंगल के पीछे दोनों चलने लगे।

बदन इस समय कुछ चिन्तित था। वह चुपचाप जब मंगल की पाठशाला में पहुँच गया, तब उसे एक आश्चर्यमय क्रोध हुआ। किन्तु वहाँ का दृश्य देखते ही उनका मन बदल गया। क्लास का समय हो गया था, मंगल के संकेत से एक बालक ने घंटा बजा दिया। पास ही खेलते हुए बालक दौड़ आये; अध्ययन आरम्भ हुआ। मंगल को यत्न-सहित उन बालकों को पढ़ाते देखकर गाला को एक तृप्ति हुई। बदन भी अप्रसन्न न रह सका। उसने हँसकर कहा, 'भई, तुम पढ़ाते हो, तो अच्छा करते हो; पर यह पढ़ना किस काम का होगा मैं तुमसे कई बार कह चुका हूँ कि पढ़ने से, शिक्षा से, मनुष्य सुधरता है; पर मैं तो समझता हूँ- ये किसी काम के न रह जाएँगे। इतना परिश्रम करके तो जीने के लिए मनुष्य कोई भी काम कर सकता है।'

'बाबा! पढ़ाई सब कामों को सुधार करना सिखाती है। यह तो बड़ा अच्छा काम है, देखिये मंगल के त्याग और परिश्रम को!' गाला ने कहा।

'हाँ, तो यह बात अच्छी है।' कहकर बदन चुप हो गया।

मंगल ने कहा, 'ठाकुर! मैं तो चाहता हूँ कि लड़कियों की भी एक पाठशाला हो जाती; पर उनके लिए स्त्री अध्यापिका की आवश्यकता होगी, और वह दुर्लभ है।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book