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कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9701
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आईएसबीएन :9781613014301 |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'अच्छा तो तुमको पुरोहिती करनी होगी। निकाह कराओगे न ?
'अपनी कमर टटोलिये, मैं प्रस्तुत हूँ।' कहकर सोमदेव ने हँस दिया।
मिरजा मलका के प्रकोष्ठ की ओर चले।
सब आभूषण और मूल्यवान वस्तु सामने एकत्र कर मलका बैठी है। रहमत ने सहसा आकर देखा, उसकी आँखें चमक उठीं। उसने कहा, 'बेटी यह सब क्या?'
'इन्हें दहेज देना होगा।'
'किसे क्या मैं उन्हें घर ले आऊँ?'
'नहीं, जिसका है उसे।'
'पागल तो नहीं हो गयी है-मिला हुआ भी कोई यों ही लौटा देता है?'
'चुप रहो बाबा!'
उसी समय मिरजा ने भीतर आकर यह देखा। उनकी समझ में कुछ न आया, उत्तेजित होकर उन्होंने कहा, 'रहमत! क्या यह सब घर बाँध ले जाने का ढंग था।'
'रहमत आँखें नीची किये चला गया, पर मलका शबनम लाल हो गयी। मिरजा ने सम्हलकर उससे पूछा, 'यह सब क्या है मलका?'
तेजस्विता से शबनम ने कहा, 'यह सब मेरी वस्तुएँ हैं, मैंने रूप बेचकर पायी हैं, क्या इन्हें घर न भेजूँ।'
चोट खाकर मिरजा ने कहा, 'अब तुम्हारा दूसरा घर कौन है, शबनम! मैं तुमसे निकाह करूँगा।'
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