उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
सुन्दरी ने बेढब रंग देखा, वह पिंजरा लेकर चली। मन में सोचती जाती थी-आज वह क्या! मन-बहलाव न होकर यह काण्ड कैसा!
शबनम तिरस्कार न सह सकी, वह मर्माहत होकर श्वेत प्रस्तर के स्तम्भ में टिककर सिसकने लगी। मिरजा ने अपने मन को धिक्कारा। रोने वाली मलका ने उस अकारण अकरुण हृदय को द्रवित कर दिया। उन्होंने मलका को मनाने की चेष्टा की, पर मानिनी का दुलार हिचकियाँ लेने लगा। कोमल उपचारों ने मलका को जब बहुत समय बीतने पर स्वस्थ किया, तब आँसू के सूखे पद-चिह्न पर हँसी की दौड़ धीमी थी, बात बदलने के लिए मिरजा ने कहा, 'मलका, आज अपना सितार सुनाओ, देखें, अब तुम कैसा बजाती हो?'
'नहीं, तुम हँसी करोगे और मैं फिर दुखी होऊँगी।'
'तो मैं समझ गया, जैसे तुम्हारा बुलबुल एक ही आलाप जानता है-वैसे ही तुम अभी तक वही भैरवी की एक तान जानती होगी।' कहते हुए मिरजा बाहर चले गये। सामने सोमदेव मिला, मिरजा ने कहा, 'सोमदेव! कंगाल धन का आदर करना नहीं जानते।'
'ठीक है श्रीमान्, धनी भी तो सब का आदर करना नहीं जानते, क्योंकि सबके आदरों के प्रकार भिन्न हैं। जो सुख-सम्मान आपने शबनम को दे रखा है, वही यदि किसी कुलवधु को मिलता!'
'वह वेश्या तो नहीं है। फिर भी सोमदेव, सब वेश्याओं को देखो-उनमें कितने के मुख सरल हैं, उनकी भोली-भाली आँखें रो-रोकर कहती हैं, मुझे पीट-पीटकर चंचलता सिखायी गयी है। मेरा विश्वास है कि उन्हें अवसर दिया जाये तो वे कितनी कुलवधुओं से किसी बात में कम न होतीं!'
'पर ऐसा अनुभव नहीं, परीक्षा करके देखिये।'
|