उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'फिर इसको क्या हो गया है, बतला नहीं तो सिर के बाल नोंच डालूँगी।'
सुन्दरी को विश्वास था कि मलका कदापि ऐसा नहीं कर सकती। वह ताली पीटकर हँसने लगी और बोली, 'मैं समझ गयी!'
उत्कण्ठा से मलका ने कहा, 'तो बताती क्यों नहीं?'
'जाऊँ सरकार को बुला लाऊँ, वे ही इसके मरम की बात जानते हैं।'
'सच कह, वे कभी इसे दुलार करते हैं, पुचकारते हैं मुझे तो विश्वास नहीं होता।'
'हाँ।'
'तो मैं ही चलती हूँ, तू इसे उठा ले।'
सुन्दरी ने महीन सोने के तारों से बना हुआ पिंजरा उठा लिया और शबनम आरक्त कपोलों पर श्रम-सीकर पोंछती हुई उसके पीछे-पीछे चली।
उपवन की कुंज गली परिमल से मस्त हो गयी। फूलों ने मकरन्द-पान करने के लिए अधरों-सी पंखड़ियाँ खोलीं। मधुप लड़खड़ाये। मलयानिल सूचना देने के लिए आगे-आगे दौड़ने लगा।
'लोभ! सो भी धन का! ओह कितना सुन्दर सर्प भीतर फुफकार रहा है। कोहनूर का सीसफूल गजमुक्ताओं की एकावली बिना अधूरा है, क्यों वह तो कंगाल थी। वह मेरी कौन है ?
'कोई नहीं सरकार!' कहते हुए सोमदेव ने विचार में बाधा उपस्थित कर दी।
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