उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'सरकार, पेट नहीं भरता, दो बीघा जमीन से क्या होता है।'
मिरजा ने कौतुक से कहा, 'तो तुम लोगों को कोई सुखी रखना चाहे, तो रह सकते हो?'
रहमत के लिए जैसे छप्पर फाड़कर किसी ने आनन्द बरसा दिया। वह भविष्य की सुखमयी कल्पनाओं से पागल हो उठा, 'क्यों नहीं सरकार! आप गुनियों की परख रखते हैं।'
सोमदेव ने धीरे से कहा, 'वेश्या है सरकार।'
मिरजा ने कहा, 'दरिद्र हैं।'
सोमदेव ने विरक्त होकर सिर झुका लिया।
कई बरस बीत गये।
शबनम मिरजा के महल में रहने लगी थी।
'सुन्दरी! सुन्दरी! ओ बन्दरी! यहाँ तो आ!'
'आई!' कहती हुई एक चंचल छोकरी हाथ बाँधे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसकी भवें हँस रही थीं। वह अपने होंठो को बड़े दबाव से रोक रही थी।
'देखो तो आज इसे क्या हो गया है। बोलती नहीं, मरे मारे बैठी है।'
'नहीं मलका! चारा-पानी रख देती हूँ। मैं तो इससे डरती हूँ! और कुछ नहीं करती।'
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