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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।

12

विचार सागर में डूबती-उतराती हुई घण्टी आज मौलसिरी के नीचे एक शिला-खण्ड पर बैठी है। वह अपने मन से पूछती थी- विजय कौन है, जो मैं उसे रसालवृक्ष समझकर लता के समान लिपटी हूँ। फिर उसे आप ही आप उत्तर मिलता- तो और दूसरा कौन है मेरा लता का तो यही धर्म है कि जो समीप अवलम्ब मिले, उसे पकड़ ले और इस सृष्टि में सिर ऊँचा करके खड़ी हो जाये। अहा! क्या मेरी माँ जीवित है?

पर विजय तो चित्र बनाने में लगा है। वह मेरा ही तो चित्र बनाता है, तो भी मैं उसके लिए निर्जीव प्रतिमा हूँ, कभी-कभी वह सिर उठाकर मेरी भौंहों के झुकाव को, कपोलों के गहरे रंग को देख लेता है और फिर तूलिका की मार्जनी से उसे हृदय के बाहर निकाल देता है। यह मेरी आराधना तो नहीं है। सहसा उसके विचारों में बाधा पड़ी। बाथम ने आकर घण्टी से कहा, 'क्या मैं पूछ सकता हूँ?'

'कहिए।' सिर का कपड़ा सम्हालते हुए घण्टी ने कहा।

'विजय से आपकी कितने दिनों की जान-पहचान है?'

'बहुत थोड़े दिनों की-यही वृन्दावन से।'

'तभी वह कहता था...'

'कौन क्या कहता था?'

'दरोगा, यद्यपि उसका साहस नहीं था कि मुझसे कुछ अधिक कहे; पर इसका अनुमान है कि आपको विजय कहीं से भगा लाया है।'

'घण्टी किसी की कोई नहीं है; जो उसकी इच्छा होगी वही करेगी! मैं आज ही विजय बाबू से कहूँगी कि वह मुझे लेकर कहीं दूसरे घर में चलें।'

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