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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


अंधा कहकर चुप हुआ।

विजय ने कहा, 'बुड्ढे! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई?'

'वह सुनकर क्या करोगे। अपनी करनी का फल भोग रहा हूँ, इसिलिए मैं अपनी पाप कथा सबसे कहता फिरता हूँ, तभी तो इनसे भेंट हुई। भीख दो माता, अब हम जायें।' अंधे ने कहा।

सरला ने कहा, 'अच्छा एक बात बताओगे?'

'क्या?'

'उस बालक के गले में एक सोने का बड़ा-सा यंत्र था, उसे भी तुमने उतार लिया होगा सरला ने उत्कण्ठा से पूछा।

'न, न, न। वह बालक तो उसे बहुत दिनों तक पहने था, और मुझे स्मरण है, वह तब तक न था जब मैंने उसे अनाथालय में सौंपा था। ठीक स्मरण है, वहाँ के अधिकारी से मैंने कहा था- इसे सुरक्षित रखिए, सम्भव है कि इसकी यही पहचान हो, क्योंकि उस बालक पर मुझे दया आयी; परन्तु वह दया पिशाच की दया थी।'

सहसा विजय ने पूछा, 'क्या आप बता सकती हैं-वह कैसा यंत्र था?'

वह यंत्र हम लोगों के वंश का प्राचीन रक्षा-कवच था, न जाने कब से मेरे कुल के सब लड़कों को वह एक बरस की अवस्था तक पहनाया जाता था। वह एक त्रिकोण स्वर्ण-यंत्र था।' कहते-कहते सरला के आँसू बहने लगे।

अन्धे को भीख मिली। वह चला गया। सरला उठकर एकांत में चली गयी। घण्टी कुछ काल तक विजय को अपनी ओर आकर्षित करने के चुटकुले छोड़ती रही; परन्तु विजय एकान्त चिंता-निमग्न बना रहा।

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