ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
मनु ने देखा जब श्रद्धा का वह सहज-खेद से भरा रूप,
अपनी इच्छा का दृढ़ विरोध-जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं, रहे चुपचाप देखते साधिकार,
श्रद्धा कुछ-कुछ मुस्कुरा उठी ज्यों जान गई उनका विचार।
'दिन भर थे कहां भटकते तुम' बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
''यह हिंसा इतनी है प्यारी जो भुलवाती है देह-गेह।
मैं यहां अकेली देख रही पथ, सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत,
कानन में जब तुम दौड़ रहे मृग के पीछे बन कर अशांत!
ढल गया दिवस पीला-पीला तुम रक्तारुण बन रहे धूम,
देखो नीड़ों में विहग-युगल अपने शिशुओं को रहे चूम!
उनके घर में कोलाहल है मेरा सूना है गुफा-द्वार!
तुमको क्या ऐसी कमी रही जिसके हित जाते अन्य-द्वार?''
''श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं पर मैं तो देख रहा अभाव,
भूली-सी कोई मधुर वस्तु जैसे कर देती विकल घाव।
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने अबरुद्ध श्वास लेगा निरीह!
गतिहीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जड़-बंधन-सा एक मोह कसता प्राणों का मृदु शरीर,
आकुलता और जकड़ने की तब ग्रंथि तोड़ती हो अधीर।
हंस कर बोले, बोलते हुए निकले मधु-निर्झर-ललित-गान,
गानों में हो उल्लास भरा झूमे जिसमें बन मधुर प्रान।
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