| ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
 बीजों का-संग्रह और इधर चलती है तकली भरी गीत, 
 सब कुछ लेकर बैठी है वह, मेरा अस्तित्व हुआ अतीत!''
 
 लौटे थे मृगया से थक कर दिखलाई पड़ता गुफा-द्वार, 
 पर और न आगे बढ़ने की इच्छा होती, करते विचार! 
 
 मृग डाल दिया, फिर धनु को भी, मनु बैठ गये शिथिलित शरीर, 
 बिखरे थे सब उपकरण वहीं आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
 
 ''पश्चिम की रागमयी संध्या अब काली है हो चली, किंतु, 
 अब तक आये न अहेरी वे क्या दूर ले गया चपल जंतु'- 
 
 यों सोच रही मन में अपने हाथों में तकली रही घूम, 
 श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली अलकें लेती थीं गुल्फ चूम। 
 
 केतकी-गर्भ-सा पीला मुंह आंखों में आलस भरा स्नेह, 
 कुछ कृशता नई लजीली थी कंपित लतिका-सी लिये देह! 
 
 मातृत्व-बोझ से झुके हुए बंध रहे पयोधर पीन आज, 
 कोमल काले ऊनों की नवपट्टिका बनाती रुचिर साज, 
 
 सोने की सिकता में मानों कालिंदी बहती भर उसांस। 
 स्वर्गगा में इंदीवर की या एक पंक्ति कर रही हास! 
 
 कटि में लिपटा था नवल-वसन वैसा ही हलका बुना नील। 
 दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीड़ा झेलती जिसे जननी सलील। 
 
 श्रम-बिन्दु बना-सा झलक रहा भावी जननी का सरस गर्व, 
 बन कुसुम बिखरते थे भू पर आया समीप था महापर्व। 
 			
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