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कामायनी
कामायनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9700
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आईएसबीएन :9781613014295 |
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
पर बढ़ती ही चलती है रुकने का नाम नहीं है,
वह तीर्थ कहां है कह तो जिसके हित दौड़ रही है।''
''वह अगला समतल जिस पर है देवदारु का कानन,
घन अपनी प्याली भरते ले जिसके दल से हिमकन।
हां इसी ढालवें को जब बस सहज उतर जावें हम,
फिर सम्मुख तीर्थ मिलेगा वह अति उज्ज्वल पावनतम।''
वह इड़ा समीप पहुंच कर बोला उसको रुकने को,
बालक था, मचल गया था कुछ और कथा सुनने को।
वह अपलक लोचन अपने पादाग्र विलोकन करती,
पथ-प्रदर्शिका-सी चलती धीरे-धीरे डग भरती।
बोली - ''हम जहां चले हैं वह है जगती का पावन-
साधना प्रदेश किसी का शीतल अति शांत तपोवन।''
''सुनती हूं एक मनस्वी था वहां एक दिन आया,
वह जगती की ज्वाला से अति-विकल रहा झुलसाया।
उसकी वह जलन भयानक फैली गिरी अंचल में फिर,
दावाग्नि प्रखर लपटों ने कर दिया सघन वन अस्थिर।
थी अर्धांगिनी उसी की जो उसे खोजती आयी,
यह दशा देख, करुणा की-वर्षा दृग में भर लायी।
वरदान बने फिर उसके आसूं, करते जग-मंगल,
सब ताप शांत होकर, वन हो गया हरित, सुख-शीतल।
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