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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना

आनंद

चलता था धीरे धीरे वह एक यात्रियों का दल,
सरिता के रम्य पुलिन में गिरीपथ से, ले निज सबल।

था सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि,
घंटा बजता तालों में थी उसकी थी मंथर गति-विधि।

वृष-रज्जु वाम कर में था दी क्षण त्रिशूल से शोभित,
मानव था साथ उसी के मुख पर था तेज अपरिमित।

केहरि-किशोर से अभिनव अवयव प्रस्फुटित हुए थे,
यौवन गंभीर हुआ था जिसमें कुछ भाव नये थे।

चल रही इड़ा भी वृष के दूसरे पार्श्व में नीरज,
गैरिक-वसना संध्या सी जिसके चुप थे सब कलरव।

उल्लास रहा युवकों का शिशु गण का था मृदु कलकल,
महिला-मंगल-गानों से मुखरित था वह यात्री दल।

चमरों पर बोझ लदे थे वे चलते थे मिल अविरल,
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर अपने ही बने कुतूहल।

माताएं पकड़े उनको बातें थी करती जाती,  
'हम कहां चल रहे यह सब उनकी विधिवत समझातीं।

कह रहा था एक ''तू तो कब से ही सुना रही है-
अब आ पहुंची लो देखो आगे वह भूमि यही है।

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