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कामायनी
कामायनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9700
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आईएसबीएन :9781613014295 |
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
रहस्य
ऊर्ध्व देश उस नील तमस में स्तब्ध हो रह रही अचल हिमानी
पथ थक कर हैं लीन, चतुर्दिक देख रहा वह गिरी अभिमानी।
दोनों पथिक चले हैं कब से ऊंचे ऊंचे चढ़ते चढ़ते,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साही से बढ़ते।
पवन वेग प्रतिकूल उधर था कहता, 'फिर आ अरे बटोही!'
किधर चला तू मुझे भेद कर! प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?
छूने को अंबर मचली सी बढ़ी जा रही सतत ऊंचाई;
विक्षत उसके अंग, प्रगट थे भीषण खड्ड भयकरी खाई।
रविकर हिम खंडों पर पड़ कर हिमकर कितने नये बनाता,
दुततर चक्कर काट पवन भी फिर से वहीं लौट आ जाता।
नीचे जलधर दौड़ रहे थे सुंदर सुर-धनु माला पहने,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते चमकाते चपला के गहने।
प्रवहमान थे निम्न देश में शीतल शत-शत निर्झर ऐसे,
महाश्वेत गजराज गड से बिखरी मधु धारायें जैसे।
हरियाली जिनकी उभरी, वे समतल चित्रपटी से लगते,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर, नद जो प्रति पल थे भगते।
लघुतम वे सब जो वसुधा पर ऊपर महाशून्य का घेरा,
ऊंचे चढ़ने की रजनी का यहां हुआ जा रहा सवेरा।
''कहां ले चली हो अब मुझको श्रद्धे! मैं थक चला अधिक हूं
साहस छूट गया है मेरा निस्संबल भग्नाश पथिक हूं।
लौट चलो, इस बात चक्र से मैं दुर्बल अव लड न सकूंगा
श्वास रुद्ध करने वाले इस शीत पवन से अड़ न सकूंगा।
मेरे, हां वे सब मेरे थे जिन से रूठ चला आया हूं,
वे नीचे छूटे सुदूर, पर भूल नहीं उनको पाया हूं।''
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